अवबोध

स्वाध्याय

अवबोध

धर्म बोध

दान धर्म

प्रश्न 20: संयमी को देने में धर्म-पुण्य होता है, असंयमी को देने में नहीं, यह कैसे?

उत्तर : असंयमी को खिलाने-पिलाने आदि से उनके असंयम का पोषण होता है। असंयमी के शरीर को परिग्रह माना गया है। अठारह पापों में परिग्रह को पाँचवाँ पाप माना है। फिर परिग्रह की वृद्धि या संरक्षण में धर्म कैसे हो सकता है? संयमी के शरीर को परिग्रह नहीं माना है, अपितु संयम-पालन का साधन माना है। उनको देने से उनके संयमी शरीर के पोषण में वह सहायक बनता है, इसलिए वह धर्म है।

प्रश्न 21: क्या साधुओं के भोजन करने में धर्म है?

उत्तर : साधुओं के भोजन करने में धर्म है, क्योंकि उनका भोजन करने का उद्देश्य मात्र संयम-यात्रा को निर्बाध रूप से चलाना है। आगमों में यह वर्णित है कि मुनि शुद्ध एषणीय आहार करता हुआ सातों कर्म प्रकृतियाँ जो दीर्घावधि की हैं, उन्हें स्वल्पावधि की कर देता है। कर्मों के तीव्र रस को मंद रस वाला बना देता है।

प्रश्न 22: अशुद्ध दान लेने वाले मुनि क्या दोष के भागीदार होते हैं?

उत्तर : जो मुनि जानता हुआ भी दोषयुक्त भोजन आदि ग्रहण करता है, तो उसके पाप का बंध होता है। ऐसा करता हुआ वह अपने मुनि-धर्म से च्युत हो जाता है। साधनाशील मुनि अपनी प्रज्ञा से भोजन आदि को बयालीस दोषों से रहित जानता हुआ ग्रहण करता है, किंतु केवलज्ञानियों की दृष्टि में वह अशुद्ध है, तदपि उन्हें पाप नहीं लगता। उस भोजन को करता हुआ मुनि आराधक पद को पाता है।

प्रश्न 23 : विसर्जन किसे कहते हैं?

उत्तर : ममत्व के परित्याग को विसर्जन करते हैं।

(क्रमशः)