गर्भकाल में माँ की जागरूकता से शिशु का आध्यात्मिक विकास होता है: आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

गर्भकाल में माँ की जागरूकता से शिशु का आध्यात्मिक विकास होता है: आचार्यश्री महाश्रमण

ताल, छापर, 3 अगस्त, 2022
नमस्कार महामंत्र के मध्यम पद में विराजित आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि भगवती सूत्र में प्रश्न किया गया है कि जीव गर्भ में जाता है, एक जन्म से दूसरे जन्म में तब वह सइंद्रिय जाता है या अनिन्द्रिय जाता है। पुनर्जन्म के संदर्भ में देखें कि जीव जब गर्भ में आता है, शरीर का निर्माण होता है तब शरीर का निर्माण कर्म के निमित्त से होता है, अथवा भूत मात्र के संयोग से होता है। यह प्रश्न प्राचीन काल में भी चर्चित रहा है। वात्स्यायन के अनुसार कर्म के फल के द्वारा शरीर का निर्माण होता है। जैन दर्शन भी कर्म से शरीर का निर्माण होता है, इस सिद्धांत को मानने वाला है।
दो बातें हैं, एक अपेक्षा से वह जीव सइंद्रिय जाता है और दूसरी अपेक्षा से अनिन्द्रिय जाता है। इंद्रियाँ दो प्रकार की हैं-द्रव्येंद्रियाँ और भावेंद्रियाँ। द्रव्येंद्रियाँ पौद्गलिक हैं। चैतसिक हैं, वो भावेंद्रियाँ हैं। मृत्यु के बाद जीव जब एक जन्म से दूसरे जन्म में जाता है, तो चेतना में क्षयोपशम रूप में जो भावेंद्रिय है, उसको साथ लेकर जाता है। पुनर्जन्म के संदर्भ में दूसरा प्रश्न किया गया कि वह जो जीव अगले जन्म में गर्भ में जाता है, तब वो जीव सशरीर जाता है या अशरीर जाता है। उत्तर दिया गया एक अपेक्षा से तो सशरीर जाता है, दूसरी अपेक्षा से अशरीर जाता है। शरीर पाँच हैं-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस और कार्मण। पहले तीन शरीर स्थूल है। इन तीनों को साथ लेकर कोई आगे नहीं जाता। परंतु तेजस शरीर जो सूक्ष्म है तथा कार्मण शरीर जो सूक्ष्मतर है, ये दो शरीर अगले जन्म में आगे साथ में भी जाते हैं।
उत्पत्ति के संदर्भ में तीसरा प्रश्न किया गया है कि जैसे मनुष्य के रूप में कोई जीव पैदा हो रहा है, तो पैदा होते ही जीव कौन सा आहार ग्रहण करता है। उत्तर दिया गया गौतम! वह जीव सबसे पहले माता का औज पिता का शुक्र इन दोनों से मिश्रित आहार ग्रहण करता है। चौथा प्रश्न किया गया कि वह जीव गर्भ में रहेगा तब कौन सा आहार ग्रहण करेगा? गर्भस्थ जीव की जो माता है वह नाना प्रकार की रस प्रवृत्तियों का आहार लेती है, उसके एक देश का वह गर्भस्थ शिशु आहार के रूप में ग्रहण कर लेता है। यह बताया गया है कि जो गर्भिणी माँ भोजन करती है, वह आहार माता के शरीर में तीन भागों में विभक्त हो जाता है। एक भाग माँ की शरीर की पुष्टि के लिए, दूसरा भाग माँ के दूध बनाने के काम में आता है। भोजन का तीसरा हिस्सा जो गर्भस्थ बच्चा है, उसकी पुष्टि के लिए काम आता है।
पाँचवाँ प्रश्न किया गया है कि जो गर्भस्थ बच्चा है, उसके मल-मूत्र, कफ, श्लेष्य होते हैं या नहीं। उत्तर दिया गया कि ऐसा नहीं होता। क्योंकि वो जो बच्चा आहार लेता है, वह वो अपने इंद्रियों के रूप में अस्थि, मज्जा, केश, रोम, नख के रूप में पय कर लेता है। छठा प्रश्न किया गया कि वो बच्चा मुख से आहार लेता है या नहीं। उत्तर दिया गया गर्भस्थ बच्चा मुँह से आहार लेने में सक्षम नहीं होता है? वो बच्चा समग्र शरीर से आहार ग्रहण करता है। माँ और बच्चा दोनों जुड़े हुए हैं। दो नाड़ियाँ होती हैं-मातृ जीव रस हरणी और पुत्र जीव रस हरणी। गर्भस्थ की नाभि में नाड़ी लगी रहती है। नाड़ी में अपरा-जरायू लगी रहती है, उससे उस बच्चे को आहार की सप्लाई होती रहती है। ये कई जिज्ञासाएँ भगवती सूत्र में की गई है, गौतम को उनका उत्तर भी दिया गया है। आयुर्वेद में भी ऐसी बातें मिलती हैं। यह पुनर्जन्म और गर्भस्थ बच्चे के जन्म का सिद्धांत है।
एक महत्त्वपूर्ण बात होती है कि गर्भस्थ बच्चा है, उसमें अच्छे संस्कारों का निर्माण कैसे हो सकता है। ऐसा बताया गया है कि माँ गर्भस्थ अवस्था में होती है, तो माँ को जागरूकता रखनी होती है कि गर्भकाल में माँ उसको अच्छा शिक्षण देने का प्रयास करें, अच्छी मंगलकामनाएँ करें। सिद्धोसी, बुद्धोसी, निरंजनोसी। मेरा बच्चा अच्छा विनय-संस्कार वाला रहे। माँ का एक दायित्व होता है कि मैं बच्चे को जन्म के बाद भी अच्छे संस्कार दूँ और गर्भकाल में बच्चे को अच्छे संस्कार दूँ। कालू यशोविलास आख्यान की विवेचना करते हुए महामनीषी ने फरमाया कि पूज्य कालूगणी के करकमलों द्वारा सरदारशहर में कई दीक्षाएँ हुई हैं। उसके बाद चुरू, रतनगढ़, राजलदेसर, सुजानगढ़ में भी कई दीक्षाएँ हुई हैं। लघु सिंह निष्क्रिडित तप करने वाली कई साध्वियाँ हुई हैं। वि0सं0 1968 का चतुर्मास में हो रहा है, वहाँ भी कई बार अनेक दीक्षाएँ हुई हों बाद में राजलदेसर में घोर तपस्वी मुनि सुखलालजी की दीक्षा हुई है। छापर में भी दीक्षा हुई है। पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए।
साध्वीवर्याजी ने नमस्कार महामंत्र के चौथे पद का विवेचन करते हुए कहा कि जिनके पास से श्रुत ज्ञान मिलता है, वो उपाध्याय होते हैं। उपाध्याय का मतलब ज्ञान को नमस्कार किया गया है। ज्ञान के दो प्रकार-लौकिक और लोकोत्तर होता है। लोकोत्तर ज्ञान आत्मा और अध्यात्म का बोध कराने वाला होता है। उपाध्याय के 25 गुण बताए गए हैं। जैन श्वेतांबर तेरापंथ में आचार्य ही उपाध्याय का पद संभालते हैं। आचार्य ही व्यवस्था और अध्ययन अध्यापन का कार्य करते हैं। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।