संबोधि

स्वाध्याय

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बंध-मोक्षवाद

मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
भगवान् प्राह
(6) आत्मा ज्ञानमयोऽनन्तं, ज्ञानं नाम तदुच्यते।
अनन्तान् गुणपर्यायान्, तत्प्रकाशितुमर्हति।।
आत्मा ज्ञानमय है। उसका ज्ञान अनंत है। वह अनंत गुण और पर्यायों को जानने में समर्थ है।
गुण-द्रव्य का सहभावी धर्म, अविच्छिन्न रूप से द्रव्य में रहने वाले धर्म। गुण द्रव्य से कभी पृथक् नहीं होता।
पर्याय-द्रव्य की परिवर्तनशील अवस्थाएँ।

(7) आवारकघनत्वस्य, तारतम्यानुसारतः।
प्रकाशी चाऽप्रकाशी च, सवितेव भवत्यसौ।।
आवरण की सघनता के तारतम्य के अनुसार यह आत्मा सूर्य की भाँति प्रकाशी और अप्रकाशी होता है।

(8) उभयालम्बनं तत्तु, संशयज्ञानमुच्यते।
वेदनं विपरीतं तु, मिथ्याज्ञानं विपर्ययः।।
वह खंभा है या पुरुष-इस प्रकार का उभयालंबी ज्ञान ‘संशयज्ञान’ कहलाता है। जो पदार्थ जैसा है, उससे विपरीत जानना विपर्यय नामक मिथ्याज्ञान है।

(9) तार्किक दृष्टिरेषाऽस्ति, दृष्टिरागमिकी परा।
मिथ्यादृष्टेर्भवेज्ज्ञानं, अज्ञानं तदपेक्षया।
यह तार्किक दृष्टि का निरूपण है। आगमिक दृष्टि का निरूपण उससे भिन्न है। उसके अनुसार मिथ्यादृष्टि अथवा असत्-पात्र की अपेक्षा से वह ज्ञान अज्ञान कहलाता है।
आत्म-ज्ञान निर्भ्रान्त होता है। वह परापेक्ष नहीं है। जहाँ दूसरों की अपेक्षा रहती है, वहाँ न्यूनता भी रहती है। साधन, क्षेत्र आदि की अनुकूलता में वस्तु का परिज्ञान सम्यक् हो सकता है। लेकिन जहाँ कुछ कमी रहती है, वहाँ वह सम्यक् नहीं होता। संशय और विपरीत ज्ञान इसलिए सम्यक् ज्ञान की कोटि में नहीं आते। यह निरूपण दार्शनिक है, आगमिक-शास्त्रीय नहीं।
आगम की भाषा में जो मिथ्यादृष्टि है, वह सम्यग् ज्ञान का पात्र नहीं है; क्योंकि उसे स्व-भाव में आनंद नहीं आता। मिथ्यादृष्टि के ज्ञान-चेतना होने का निषेध पंचाध्यायी में मिलता है। ज्ञान अपने आपमें न सम्यक् होता है और न असम्यक्। वह पात्र की अपेक्षा से वैसा बनता है।
जो व्यक्ति मिथ्यादृष्टि होगा उसका ज्ञान भी मिथ्या होगा और जो सम्यक्दृष्टि हागा उसका ज्ञान भी सम्यक् होगा। ज्ञान व्यक्ति की पात्रता पर निर्भर करता है।
आगमों में कहा है कि एक ही श्रुत मिथ्यादृष्टि के लिए मिथ्या और सम्यक्दृष्टि के लिए सम्यक् बनता है-परिणत होता है।
इसीलिए जैन परंपरा में ‘दर्शन’ (दृष्टि) की विशुद्धि पर बहुत बल दिया है। जिसका दर्शन सही नहीं होता उसका ज्ञान भी सही नहीं होता।

(क्रमशः)