अर्हम्

अर्हम्

समणी संगीतप्रज्ञा

तेरापंथ धर्मसंघ के दैदीप्यमान ओजस्वी आचार्य परंपरा में नवम आचार्य गणाधिपति श्री तुलसी और दशम अधिशास्ता आचार्य महाप्रज्ञ जी, दोनों ही आचार्य युगद्रष्टा, युगसृष्टा गणि थे। आचार्य श्री तुलसी ने क्रांति का सिंहनाद कर पूरे विश्व को चमत्कृत कर दिया। उनके क्रांतिकारी कार्य में सर्वश्रेष्ठ कड़ी है-समण श्रेणी। आचार्य तुलसी ने नूतन दीक्षा देकर संघ की श्रीवृद्धि की, क्योंकि समण श्रेणी ने विदेश की धरती पर कदम रखकर धर्मसंघ की प्रभावना में चार चाँद लगा दिए। यह हर्ष का विषय है कि एकादशम अधिशास्ता महातपस्वी युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण की कृति साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभा जी ही समण श्रेणी की प्रथम सदस्या रही हैं और सर्वप्रथम विदेश की धरती पर चरणन्यास कर तेरापंथ धर्म का प्रचार-प्रसार कर अनिर्वचनीय निर्जरा की भागी बनी है।
वर्धापनं नूनं स्यात् योग्यस्य हितावहम्। इस अपनी ही उक्ति को चरितार्थ करते हुए साध्वी विश्रुतविभाजी को ‘मुख्य नियोजिका’ पद से अलंकृत कर उनका नाम बढ़ाया। जब अष्टम् साध्वीप्रमुखा, शासनमाता श्री कनकप्रभाजी का महाप्रयाण हो गया तब धर्मसंघ के ग्यारहवें आचार्यश्री महाश्रमण जी ने-
प्रजाक्षेमकृता सुपाश्रनिक्षेप निराकुलात्मना प्रजासृजा।
त्वं धनसम्पदां इव श्रुतीनां सदाउपयोगेऽपि अक्षयः गुरुः निधिः कृतः।।
शिशुपालवधम् में लिखे गए उपर्युक्त श्लोक की भाँति तेरापंथ धर्मसंघ की विशाल साध्वी समाज का संपूर्ण दायित्व साध्वी विश्रुतविभाजी को सौंपकर निश्चिंत हो गए अर्थात् जैसे ब्रह्मा प्रजा-जन के कल्याण हेतु सुपात्र व्यक्ति को नियोजित कर निर्भार निश्चिंत हो गए वैसे ही आचार्यश्री महाश्रमण जी भी गणाधिपति तुलसी और प्रेक्षा प्रणेता आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा परीक्षित शिक्षित दायित्वशील साध्वी को साध्वी समाज का दायित्व देकर निश्चिंत हो गए। ऐसे ज्ञानी, ध्यानी, मौनी, तपस्विनी साध्वी को साध्वीप्रमुखा के रूप में पा परम आह्लाद की अनुभूति हो रही है, संपूर्ण तेरापंथ समाज को।
अंत में- गणप्रवालं विनयप्रशाखं विश्रम्भमूलं, महनीयपुष्पम्।
तं साधुवृक्षं स्वगुणैः फलाढयं सुहृक्विहङ्गः सुखमाश्रयन्ति।।