आत्मा के आसपास

स्वाध्याय

आत्मा के आसपास

प्रेक्षा: अनुप्रेक्षा

तेजोलब्धि: उपलब्धि और प्रयोग

प्रश्न: तेजोलेश्या क्या है? यह शारीरिक शक्ति है अथवा आत्मिक परिणति? क्या इस लेश्या की विशुद्धि से बीमारियों का भी उपशमन होता है?
उत्तर: तेजोलेश्या हमारे सामने दो रूपों में है-उसका एक रूप पौद्गलिक है और दूसरा चैतसिक है। इसका पौद्गलिक रूप तैजस-परमाणुओं से बनता है। वे परमाणु बहुत ही शुभ और सुखद होते हैं। इसका दूसरा रूप भावात्मक है। इसके आधार पर विचार बनते हैं। विचारों का बनना और बिगड़ना बहुल रूप में भावों पर निर्भर करता है। लेश्या का सीधा संबंध भावों से है। भावधारा के माध्यम से विचार प्रभावित होते हैं।
सब तैजस परमाणु एकरूप नहीं होते। उनमें कुछ परमाणु शुद्ध, कुछ शुद्धतर और कुछ शुद्धतम होते हैं। इसी आधार पर भावों में तारतम्य रहता है। वे भी विशुद्ध, विशुद्धतर और विशुद्धतम होते हैं। उज्ज्वल तेजोलेश्या से तेज और ओज की वृद्धि होती है तथा अनेक प्रकार की मानसिक और मनोकायिक बीमारियां मिट जाती हैं। हर बीमारी मिट ही जाती है, इस एकांगी दृष्टिकोण में हमारा विश्वास नहीं है। बीमारियां मिटती हैं, यह सापेक्ष बात है। बाहरी कीटाणुओं और जीवाणुओं के संक्रमण तथा कुपोषण से होने वाली बीमारिया मिटें ही, यह कोई अनिवार्यता नहीं है। किंत भावना और मन से संबंध रखने वाली बीमारियां उससे अवश्य ही प्रभावित होती हैं। सूर्य-रश्मि चिकित्सा-पद्धति (कास्मिक थेरपी) आज की सफल और सम्मत चिकित्सा पद्धति है। यह लेश्या ध्यान का ही व्यावहारिक रूप है।
प्रश्न: वैज्ञानिक मूल्यों के संदर्भ में लेश्या का क्या महत्त्व है? रश्मि चिकित्सा की भांति रंग-चिकित्सा (कलर थेरेपी) का भी आज बोलबाला है। क्या यह भी लेश्या का ही कोई प्रयोग है?
उत्तर: लेश्या अपने आप में बहुत बड़ा विज्ञान है। ध्यान-साधना की दृष्टि से उस समझना बहुत आवश्यक है। रंग चिकित्सा और रश्मि-चिकित्सा की सूक्ष्मता लेश्या ध्यान के माध्यम से अनुभव की जा सकती है। हमारे शरीर में रंगों की कमी के कारण अव्यवस्था होती है। इसी प्रकार प्रकाश की कमी से भी संतुलन बिगड़ता है। रंग और रश्मियों के आधार पर शारीरिक परिवर्तन और भाव परिवर्तन होते हैं, इसलिए इन चिकित्सा पद्धतियो को महत्त्व मिल रहा है। ये दोनों पद्धतियां लेश्या-ध्यान की उपजीवी हैं। जिस प्रकार सूर्य की रश्मियों के रंगों अथवा बोतल आदि के रंगों से शारीरिक परिवर्तन होते हैं, वैसे ही भावना के स्तर पर रंगों के ध्यान से भाव-परिवर्तन की घटना को नकारा नहीं जा सकता। आज तो इस विषय में बहुत वैज्ञानिक कार्यरत हैं। उनके विश्लेषणों और प्रयोगों से नए-नए तथ्य प्रकाश में आ रहे हैं। आने वाले दशक में लेश्या-ध्यान का प्रयोग एक वैज्ञानिक प्रयोग के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकेगा। इस संभावना को निर्णायक रूप मिलने में कोई कठिनाई नहीं होगी, ऐसा मेरा विश्वास है।
प्रश्न: लेश्या हमारे भाव-शोधन का एक अमोघ उपाय है। उससे शारीरिक और मनोकायिक स्वास्थ्य भी उपलब्ध होता है। पर यह सब तभी हो सकता है, जब लेश्या विशुद्ध हो। लेश्या को शुद्ध बनाने की क्या प्रक्रिया है?
उत्तर: लेश्या को विशुद्ध करने का एक महत्त्वपूर्ण उपाय है-ध्यान। इसके साथ भावशोधन के जितने उपक्रम हैं, वे सब लेश्या को शुद्ध करने वाले हैं। उन उपक्रमों में आतापना, तपस्या, स्वाध्याय, अनुप्रेक्षा और चिंतन का जितना योग है उतना ही वातावरण शुद्धि का भी योग है। अनुकूल परिस्थितियों और चौतसिक निर्मलता का भी अपना मूल्य है। ये सब बातें एक साथ या अलग-अलग रूप में हमारी भावधारा को प्रभावित करती हैं और उससे लेश्या विशुद्ध या उज्ज्वल होती है। ।
प्रश्न: आज के वैज्ञानिक सौर ऊर्जा को संगृहीत कर उसे लोकजीवन के लिए उपयोगी बना रहे हैं। सौर ऊर्जा में प्राप्त होने वाला प्रकाश-तत्त्व और रंग-तत्त्व लेश्या में भी विद्यमान है। क्या ऐसी भी कोई प्रक्रिया है, जिससे लेश्या की ऊर्जा को संग्रहीत कर उसे व्यवहार में उपयोगी बनाया जा सकता है?
उत्तर: तेजोलब्धि और क्या है? संचित ऊर्जा की अभिव्यक्ति ही तो है यह। व्यक्ति के स्तर पर इसका उपयोग भी होता है। तेजोलब्धि जिसके पास होती है, वह उसका उपयोग निर्माण और ध्वंस दोनों कामों में कर सकता है। इसी को प्राचीन भाषा में अनग्रह या वरदान और निग्रह या शाप कहा जाता था। अनुग्रह करने वाली तेजोलेश्या को शीत तेजोलेश्या कहा जाता है और निग्रह करने वाली तेजोलेश्या को उष्ण तेजोलेश्या। एक दृष्टि से देखा जाए तो सुख और दुःख के संवेदन, राजीपन और नाराजगी, वरदान और शाप ये सब ऊर्जा अथवा विद्युत के ही परिणाम हैं। विद्युत के बिना कुछ भी नहीं होता।
जिस प्रकार विद्युत अपना चंुबकीय क्षेत्र बनाती है, उसी प्रकार तेजोलेश्या भी, चुंबकीय स्थान बनाती है। उसकी विद्युतधारा व्यक्ति के व्यक्तित्व को किसी सहयोग देती है तथा अन्य उपलब्धियों के प्राप्त होने में भी निमित्त बनती हैं।
सामान्यतः हर व्यक्ति थोड़ी-बहुत विद्युत का संचय करता ही है। अधिकार से अधिक सामर्थ्य बढ़ता है और समर्थ व्यक्ति ही अनुग्रह या निग्रह की क्षमता प्राप्त कर सकता है। तेजोलब्धि के प्रमुख रूप से तीन कारण हे-आतापना, सहिष्णुता और जलरहित तपस्या।
आतापना एक प्रकार से सौर ऊर्जा प्राप्ति का ही उपक्रम है। किस आसन और किस स्थिति में बैठने से अधिक सौर ऊर्जा संचित हो सकती है, इस बात को ध्यान में रखकर विशिष्ट साधकों के लिए खड़े-खड़े आतापना लेने का क्रम है। लेटकर आतापना लेने का विधान कम मिलता है। बृहत्कल्प भाष्य में इस संबंध में विस्तार से चर्चा की गई है। -- सहिष्णुता भी ऐसा तत्त्व है, जिससे तैजस का विकास होता है। जिस साधक में सहिष्णुता नहीं होती, वह शारीरिक और मानसिक प्रतिकूलता में अस्थिर हो जाता है, संतुलन खो देता है। वैसे हर व्यक्ति में स्वाभाविक रूप से होने वाला तैजस-शरीर होता ही है, पर वह शरीर से बाहर नहीं निकलता। तपजनित तैजस ही व्यवहार में उपयोगी बनता है। सहिष्णुता भी एक प्रकार का तप है। दसविध श्रमणधर्मों में इस का स्थान पहला है। तेजोलब्धि साधने के लिए इसको साधना बहुत जरूरी है।
तीसरी बात है-जलरहित तपस्या। जल तैजस का प्रतिपक्षी तत्त्व है। जिस तपस्या में जल का सेवन होता है, वह तैजस को उतना प्रबल नहीं बना सकती। भगवान महावीर से जब तेजोलब्धि उपलब्ध करने का उपाय पूछा गया तो भगवान ने कहा-‘जो साधक निरंतर दो-दो दिन का निर्जल उपवास करता है, पारणा में मुट्ठी भर उड़द खाता है और एक चुल्लू भर पानी पीता है, भुजाओं को ऊंचा कर सूर्य की आतापना लेता है, वह छह। मास के भीतर तेजोलब्धि प्राप्त कर सकता है।’ निष्कर्ष की भाषा में यह कहा जा सकता है। कि भगवान महावीर की अथवा जेनों की साधना पद्धति तैजसप्रधान पद्धति है। इस पद्धति। के अनुसार साधना करने वाला साधक तेजस-शक्ति का यथेष्ट विकास कर सकता है।

(क्रमशः)