उपासना

स्वाध्याय

उपासना

उपासना

(भाग - एक)

 

ु आचार्य महाश्रमण ु

आचार्य शय्यंभव

आचार्य शय्यंभव हस्तरेखा के जानकार थे। मनक का हाथ देखने से उन्हें लगा, बालक का आयुष्य बहुत कम रह गया है। ऐसी स्थिति में समग्र शास्त्रों का अध्ययन करना इसके लिए संभव नहीं है।
आचार्य शय्यंभव चतुर्दश पूर्वधर थे। उन्होंने अल्पायुष्क मुनि मनक के लिए पूर्वों से दशवैकालिक सूत्र का निर्यूहण किया। इस सूत्र के दस अध्ययन हैं। इसमें मुनि-जीवन की आचार-संहिता का निरूपण है। यह सूत्र उत्तरवर्ती नवीन साधकों के लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुआ है।
मुनि मनक को आचार्य शय्यंभव के सान्‍निध्य का लाभ दीर्घ समय तक प्राप्त न हो सका। संयम-पर्याय के छह महीने ही बीते थे, मुनि मनक का स्वर्गवास हो गया।
शय्यंभव श्रुतधर आचार्य थे, पर वीतराग नहीं बने थे। पुत्र-स्नेह उभर आया। उनकी आँखें मनक के मोह से गीली हो गईं।
यशोभद्र आदि मुनियों ने उनसे खिन्‍नता का कारण पूछा। आचार्य शय्यंभव ने बताया‘यह मेरा संसारपक्षीय पुत्र था। पुत्र-मोह ने मुझे विह्वल कर दिया है। यह बात पहले श्रमणों के द्वारा जान लिए जाने पर आचार्य-पुत्र समझकर कोई इससे परिचर्या नहीं करवाता और यह सेवा धर्म के लाभ से वंचित रह जाता। अत: इस भेद को आज तक मैंने श्रमणों के सामने उद्घाटित नहीं किया था।’ श्रुतधर शय्यंभव की गौपनीयता पर श्रमण आश्‍चर्यचकित रह गए।
आचार्य प्रभव के स्वर्गवास के बाद श्रुतधर शय्यंभव ने धर्मसंघ का दायित्व संभाला। वीतराग शासन की उन्होंने व्यापक प्रभावना की। स्वयं से अधिक परिचित और अतिनिकट यज्ञनिष्ठ ब्राह्मण समाज को यज्ञ का अध्यात्म रूप समझाकर उनको जैन धर्म के अनुकूल बनाया तथा नाना रूपों में जैन शासन की श्रीवृद्धि उन्होंने की।
आचार्य शय्यंभव अट्ठाईस वर्ष की अवस्था में श्रमण दीक्षा ग्रहण कर उनतालीस वर्ष की अवस्था में आचार्य पद पर आरूढ़ हुए थे। संयमी जीवन के कुल चौंतीस वर्षों में तेईस वर्ष तक युगप्रधान पद के दायित्व का निपुणता से निर्वहन किया। वे बासठ वर्ष की अवस्था में वी0नि0 98 (वि0पू0 372) में स्वर्गवासी बने।