लेश्या के साथ पुद्गलों का गहरा संबंध है: आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

लेश्या के साथ पुद्गलों का गहरा संबंध है: आचार्यश्री महाश्रमण

ताल छापर, 21 जुलाई, 2022
अंतर्चक्षु के उद्गाता आचार्यश्री महाश्रमण जी ने आगम वाणी का रसास्वाद कराते हुए फरमाया कि भगवती सूत्र में प्रश्न पूछा गया है कि भगवन! लेश्याएँ कितनी प्रज्ञप्त हैं? उत्तर दिया गया-छः लेश्याएँ बताई गई हैं। 25 बोल के सतरहवें बोल में छः लेश्याएँ उल्लिखित हैं-कृष्ण लेश्या, नील लेश्या, कापोत लेश्या, तेजः लेश्या, पद्म लेश्या और शुक्ल लेश्या। लेश्या शब्द जैन वाङ्मय में प्रयुक्त हुआ है। एक महत्त्वपूर्ण बात बताने वाला शब्द है। लेश्या का अर्थ-भावधारा, परिणाम धारा किया गया है। लेश्या शब्द श्लेष या लेश रूप में व्याख्यात हुआ है। लेश्या के द्वारा कर्म-पुद्गलों का श्लेश होता है-इसलिए इसका नाम लेश्या रखा गया है। पंच संग्रह ग्रंथ में अर्थ बताया गया है-पुण्य-पाप का लेप होना। लेप करने वाली क्रिया लेश्या है।
नंदी सूत्र की चूर्णि में अर्थ बताया गया है-लेश्या यानी रश्मि। हमारे शरीरों में एक तेजस शरीर भी है, जो हमारे परिणाम हैं, वे तेजस शरीर से प्रभावित होकर विद्युतीकरण को प्राप्त कर हमारे स्थूल शरीर में संक्रांत हो जाते हैं। नाम कर्म की एक प्रकृति है-शरीर नाम कर्म। लेश्या या भावधारा की सरंचना में तीन तत्त्वों का योग माना गया है-शरीर, वीर्य लब्धि और कषाय का उदय। आदमी या प्राणी में जो शुभ-अशुभ परिणाम होते हैं, वे लेश्या है। ये परिणाम सिद्धों और चोदहवें गुणस्थान में भी नहीं है। जहाँ योग है, वहीं लेश्या है। ये दोनों सहचर है। तेरह गुणस्थानों तक शुभाशुभ भावधारा होती है। लेश्या के साथ पुद्गलों का गहरा संबंध है। अच्छे पुद्गल अच्छे विचारों में परिणित होने में सहायक बनते हैं। बुरे पुद्गल बुरे भावों के होने में सहायक होते हैं।
जैन दर्शन की परिभाषा में जो ये भाव होते हैं, जो आत्मा से जुड़े हुए होते हैं, उन्हें भाव लेश्या व सहायक पुद्गलों को द्रव्य लेश्या कहा गया है। इस तरह लेश्या के दो प्रकार भाव लेश्या और द्रव्य लेश्या हो जाते हैं। अपने आपमें आत्मा का स्वरूप तो स्फटिक की तरह निर्मल है। परंतु जब तक आत्मा कर्म-पुद्गलों से आवृत्त है, तो संसारी अवस्था में उसका रूप विकृत रहता है। ये विकृति सबमें समान नहीं होती है। प्रश्न है-भावधारा का तारतम्य कितने भागों में होता है। तारतम्य में अनंत गुण अंतर पड़ सकता है, पर उसे स्थूल रूप में समझाने के लिए छः विभाग किए गए हैं। इनमें प्रथम तीन अधर्म या अशुभ लेश्या है, शेष तीन धर्म या शुभ लेश्या है। कृष्ण लेश्या काजल के समान कृष्ण और नीम से अनंत गुणा कटु के संबंध से आत्मा में जो भावधारा होती है, वह कृष्ण लेश्या है। नीलम के समान, सौंठ से अनंत गुणा अधिक तिक्त नील लेश्या है।
कापोत लेश्या कबुतर के गले के समान वर्ण वाली और कच्चे आम से अनंत गुणा कसैली होती है। हिंगुल के समान रक्त और पके आम से अनंत गुणा मधुर रस से आत्मा में जो परिणाम होता है, वह तेजो लेश्या है। हल्दी के समान पीले तथा मधु से अनंत गुणों से आत्मा की जो भावधारा होती है, वह पद्म लेश्या है। शंख के समान श्वेत और मिश्री से अनंत गुणों से मीठे पुद्गलों के संबंध से जो आत्मा का परिणाम शुक्ल लेश्या है। कृष्ण लेश्या के परिणाम मानसिक, वाचिक, कायिक क्रियाओं में असंयम होता है। कपटपूर्ण व्यवहार व स्वादलोलुप होना नील लेश्या के परिणाम हैं। कार्य करने व बोलने में वक्रता रखना ये कापोत लेश्या के लक्षण है। ममत्व से दूर रहना, धर्म पर रुचि रखना आदि तेजोलेश्या के परिणाम हैं। गुस्सा न करना, मितभाषी होना, इंद्रिय विजय का अभ्यास रखना ये पद्म लेश्या के परिणाम हैं। राग-द्वेष रहित रहना, आत्मलीन रहना, शुक्ल लेश्या के परिणाम हैं।
एक उदाहरण से समझाया कि
प्रथम तीन अल्पमत वाली लेश्याएँ हैं एवं शेष तीन बहुमत वाली लेश्याएँ हैं। इसलिए तीन अशुभ और तीन शुभ लेश्याएँ हैं। इस तरह से छः प्रकार से भावधारा को समझाया गया है। लेश्याएँ तो अनंत भी हो सकती हैं। परम पावन कालूयशोविलास की व्याख्या करते हुए फरमाया कि मुनि कालू को पूज्य मघवागणी के संरक्षण में विकास करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। पर वह लगभग साधिक पाँच वर्ष ही रहा। मघवागणी कालू-कालू करते हुए शिक्षा का स्नेह बरसा रहे हैं, संस्कृत भाषा का अध्ययन कराने का प्रयास कर रहे हैं। मुनि कालू भी साधुचर्या में जागृत हैं। मघवागणी के महाप्रयाण से फूल की कलियाँ अधखिली रह जाती हैं, मुनि कालू व्यथित हो जाते हैं। उन्हें रह-रहकर गुरु की याद आ रही है।
साध्वीवर्या ने कहा कि हमारे भीतर अनंत ज्ञान, अनंत शक्ति है। आत्मा के कल्याण के लिए इनकी अनुभूति करनी पड़ती है। कषाय आत्मा के कल्याण में बाधक तत्त्व है। कषाय के दो प्रकार-अहंकार और ममकार होते हैं। जब तक ये हैं, आत्मा अर्हत नहीं बन सकती। नमस्कार महामंत्र जैन शासन का महामंत्र है। अरुहंत, अरिहंत और अरहंत की परिभाषा को विस्तार से समझाया। अर्हत के स्वरूप को समझाया। मुनि विकास कुमार जी ने तप की प्रेरणा के गीत का सुमधुर संगान किया। जोरावरपुरा के सुरेंद्र बुच्चा ने 11 की तपस्या के प्रत्याख्यान किए। कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने तिरेषठ शलाका पुरुषों के बारे में विस्तार से समझाया।