अकाम निर्जरा से भी मिल सकती है देवगति: आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

अकाम निर्जरा से भी मिल सकती है देवगति: आचार्यश्री महाश्रमण

ताल, छापर, 19 जुलाई, 2022
तीर्थंकर के प्रतिनिधि आचार्यश्री महाश्रमण जी ने तीर्थंकरों की वाणी की विवेचना करते हुए फरमाया कि भगवती सूत्र में गौतम स्वामी परम प्रभु से प्रश्न कर रहे हैं कि भगवन्न! ये, जो प्राणी हैं, तिर्यंच-मनुष्य भी हैं, जो असंयत है। त्याग-प्रत्याख्यान कुछ भी नहीं है। कोई पाप करने का प्रत्याख्यान नहीं ले रखा है। ऐसे जीव मृत्यु को प्राप्त होते हैं, तो मरकर क्या वे देवलोक में उत्पन्न हो सकते हैं।
भगवान ने उत्तर फरमाया कि गौतम! इनमें से कुछ-कुछ देव बन सकते हैं, कुछ-कुछ देवता नहीं भी बन सकते हैं। वापस पूछा गया-भगवान! इसका क्या कारण है? उत्तर दिया गया-गोयम! ये कई मनुष्य आदि जीव हैं, जो गाँवों में, नगरों में, राजधानी में आदि विभिन्न स्थानों में रहते हैं। इन मनुष्यों के जीवन में कोई त्याग-संयम नहीं है। सामान्य लोग हैं। ये जो लोग हैं, उनके कईयों के अकाम निर्जरा हो सकती है।
जैसे मजदूर लोग आदि जो हैं, वे सर्दी-गर्मी, प्यास आदि को सहन करते हैं, परिवार से दूर रहते हैं, खाने-पीने का पता नहीं है, ये कष्टों को झेलते हैं, परंतु इनका लक्ष्य कोई साधना या मुक्ति नहीं है। सहज भाव से उनको सहन करते हैं। अनायास उनके संयम हो जाता है। यह जो अकाम निर्जरा हो जाती है। कई पशुओं में भी ऐसे कष्ट आते हैं, वे भी सहन करते हैं। सैनिक व नौकर-चाकर भी सहन करते हैं। इस अकाम निर्जरा के कारण से फिर वे देवगति के आयुष्य का बंध कर लेते हैं।
ऐसे ये मनुष्य-तिर्यंच आदि प्राणी वाणव्यंतर देव गति में पैदा हो जाते हैं। ऐसे जीव ज्यादा पाप भी नहीं करते हैं। देवगति में पैदा होने के चार कारण बताए गए हैं-सराग संयम, संयमासंयम, वालतप और अकाम निर्जरा। अकाम निर्जरा एक कारण बनता है, देवगति में पैदा होने का। निर्जरा है, तो पुण्य का बंध मान लें। सहन करने से सहज संयम हो जाता है। इसलिए मनुष्यों से ज्यादा संख्या में देव होते हैं।
आगम की वाणी से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि धर्म को नहीं जानने वाले लोग हैं, जीवन में सात्त्विकता है, अकाम निर्जरा होती है, तो वे देवगति में जाकर पैदा हो सकते हैं। आदमी सहन करे। उपासक श्रेणी के लोग बैठे हैं। उपवास को निर्जरा में लिया गया है। पर श्रावक या साधु ने तो त्याग किया है, संवर होना चाहिए। आचार्य भिक्षु ने बताया है कि ऐसे तो उपवास संवर है, पर उपवास में भूख-प्यास लगती है, वे सहन करते हैं, तो निर्जरा होती है, इसलिए उपवास को अनशन निर्जरा में लिया गया है।
ग्रंथ में एक कारण यह भी बताया गया है कि किसी के बीमारी हो जाती है, सहन करता है, ऐसे दीर्घकालीन जो रोग है, उनको जो झेलता है, ऐसा व्यक्ति भी देवगति का आयुष्य बंद कर सकता है। सम्यक् दृष्टि वाला सम्यक्त्व में आयुष्य का बंध करेगा तो वह तो वैमानिक देवगति का बंध करेगा। मिथ्यात्वी व्यक्ति अकाम निर्जरा कर वाणव्यंतर देवगति में पैदा होते हैं।
सम्यक्त्व अवस्था में जीव नरक गति, तिर्यंच गति, स्त्री वेद, नापुंसक वेद, भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिष्क का आयुष्य बंध नहीं करेगा। इस तरह सात चीजों का वर्णन हो जाता है, वह वैमानिक गति का ही बंध करता है। सम्यक्त्वी होकर सहन करें, फिर तो कहना ही क्या? बहुत ज्यादा लाभ मिल सकता है। जयाचार्य ने आराधना की ढाल में कहा है-सम्यक्त्व और चारित्र है, फिर वेदना को सहन करेंगे तो बहुत लाभ मिल सकता है। इस सूत्र का निष्कर्ष है-सहन कर लेना। लाभदायी तत्त्व होता है। आदमी अनुकूलता-प्रतिकूलता मे सहन करे, शांति रखे। अधीर न बने। स्व-अवस्था में सहन करना और बड़ी बात हो जाती है। साधु कितना सहन करते हैं।
निर्जरा निरंतर होती रहे। आदमी प्रावलंबन से बचें। आगम में बताया गया है कि जो अकाम निर्जरा करते हैं, जो मिथ्यावी है, असंयमी है, वे भी अकाम निर्जरा द्वारा वाणव्यंतर देवगति के आयुष्य का बंध कर सकते हैं। कालू यशोविलास की व्याख्या करते हुए पूज्यप्रवर ने फरमाया कि बालक कालू दीक्षा ले रहा है, हमारे धर्मसंघ को एक भावी आचार्य प्राप्त हो रहा है। दीक्षा के समय के अनेक प्रसंगों को परम पावन ने विस्तार से समझाया। मुनि वर्धमान जी ने गीतिका का संगान किया। मंजु दुधेड़िया ने अठाई का प्रत्याख्यान किया। कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने समझाया कि साधना में शंका नहीं करनी चाहिए।