मनुष्य के चिंतन, स्मृति और कल्पना का माध्यम बनती है भाषा: आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

मनुष्य के चिंतन, स्मृति और कल्पना का माध्यम बनती है भाषा: आचार्यश्री महाश्रमण

छापर, 16 जुलाई, 2022
जिनवाणी के उद्गाता आचार्यश्री महाश्रमण जी ने प्रमुख आगम भगवती सूत्र का विवेचन करते हुए फरमाया कि भगवती सूत्र के दूसरे सूत्र में कहा गया है-ब्राह्मी लिपि को नमस्कार। लिपि का मतलब है-अक्षर विन्यास, अक्षर की रचना करना। अक्षर के तीन प्रकार बताए गए हैं लिपि सूत्र में। उनमें संज्ञाक्षर, व्यंजनाक्षर और लब्ध्याक्षर-ये तीन प्रकार हैं। संज्ञाक्षर यानी पट्ट या कागज पर अक्षर की आकृति लिखना। मनुष्य के चिंतन, स्मृति और कल्पना का माध्यम बनती है भाषा। भाषा अक्षरात्मक होती है। शब्द और अर्थ की पर्यालोचना कर मनुष्य जानता है, वह लब्ध्याक्षर है। हमें भाषा से ज्ञान होता है। जब हम कोई शब्द सुनते हैं, उसका अर्थ ग्रहण करते हैं, वह है, लब्ध्याक्षर। जो आदमी उच्चारण करता है, वह व्यंजनाक्षर है।
अब ये प्रश्न है कि ब्राह्मी लिपि को नमस्कार क्यों किया गया है? जैन साहित्य के प्राग्ऐतिहासिक के अनुसार ब्राह्मी लिपि का संबंध भगवान ऋषभ के साथ जुड़ता है। बताया गया है कि भगवान ऋषभ ने दायें हाथ से ब्राह्मी को 18 लिपियों का ज्ञान कराया था, सुंदरी को बाएँ हाथ से गणित विद्या सिखाई थी। इसलिए उस लिपि का नाम ब्राह्मी के नाम से ब्राह्मी लिपि पड़ गया। ब्राह्मी प्राचीनतम प्रथम लिपि है। इसके आधार पर अन्य लिपियों का उद्भव हो गया होगा। जैन साहित्य में बताया गया है कि भाषा आर्य कौन होता है? जो अर्द्धमागघी प्राकृत भाषा बोलते हैं, जिनकी लिपि ब्राह्मी होती है, वह भाषा आर्य होते हैं। हमारे जैन आचार्यों ने प्राकृत भाषा व ब्राह्मी लिपि का उपयोग किया है।
ब्राह्मी लिपि को प्रारंभ में नमस्कार इसलिए किया गया है कि ये जितने भी शास्त्र हैं, ग्रंथ हैं, हमें इनसे ज्ञान मिल रहा है। ये लिखे हुए हैं, तब ज्ञान मिल रहा है। हमारे ज्ञान के सशक्त माध्यम लिपि है। लिपि का इतना उपकार है, हमारे पर। हम दूसरों को ज्ञान देते हैं, तो लिपि हमारे काम आती है। लिपि ज्ञान देने वाली है, तो उसका सम्मान भी करना चाहिए। इसलिए लिपि को नमस्कार किया गया है।
प्रश्न हो सकता है, लिपि तो निर्जीव है, उसको नमस्कार कैसे किया जा सकता है। साधु अचेतन को कैसे नमस्कार किया जा सकता है। यह प्रश्न श्रीमद् जयाचार्य ने उठाया था। लिपि के दो प्रकार हो जाते हैं-द्रव्य लिपि और भाव लिपि। द्रव्यलिपि तो अक्षरात्मक-आकृतितात्मक होती है। भाव लिपि अक्षर ज्ञानात्मक होती है। जयाचार्य ने नय के हिसाब से बताया है कि ब्राह्मी लिपि के कर्ता कौन है? और सिखाने वाले कौन हैं? प्रणेता-कर्ता भगवान ऋषभ है। यहाँ लिपि के कर्ता को नमस्कार किया गया है।
यह लिपि जो लेखन में काम आती है। भाषा का भी अंग हो जाती है। कितनी हस्तलिखित पांडुलिपियाँ व ग्रंथ हमारे ग्रंथागार में है। भारत में कितनी जगह हस्तलिखित ग्रंथ मिल सकते हैं। लिखने में अक्षर सुंदर हो तो अच्छी बात है, उपयोगी हो सकते हैं। लिपि भी एक कला है। लिपि ज्ञान का सशक्त माध्यम है। यह भगवती का दूसरा सूत्र है, इसमें ब्राह्मी लिपि के कर्ता को नमस्कार किया गया है।
कालू यशोविलास का विवेचन करते हुए पूज्यप्रवर ने फरमाया कि छापर ग्राम में ओसवाल जाति में शाह बुद्धसिंह चोपड़ा-कोठारी का परिवार है। उनके पाँच संतानें थी। उनमें एक मूलचंद थे। उनकी पत्नी का नाम छोगांजी था। उनके कोई संतान नहीं थी। कई वर्षों बाद छोगांजी को स्वप्न में एक बच्चा दिखाई दिया वो बोला माँ आपके पास आ जाऊँ क्या? पर मेरे साथ में खतरा भी आने वाला है। जैन विश्व भारती समण संस्कृति संकाय का त्रिदिवसीय कार्यक्रम आयोजित है। ‘उवासग्ग दसाओ’ आगम की पुस्तिका का विमोचन पूज्यप्रवर की सन्निधि में हुआ। इसके आधार पर आगम-मंथन प्रतियोगिता होने वाली है। परम पावन ने आशीर्वचन फरमाया। मुनि कीर्तिकुमार जी ने समण संस्कृति संकाय के बारे में बताया। समण संस्कृति संकाय के विभागाध्यक्ष मालचंद बैंगाणी, मनोज लुणिया ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने समझाया कि आत्मा और शरीर अलग-अलग हैं।