आत्मा का अस्तित्व शाश्‍वत होता है : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

आत्मा का अस्तित्व शाश्‍वत होता है : आचार्यश्री महाश्रमण

भीलवाड़ा, 21 जुलाई, 2021
महामनीषी आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल प्रेरणा प्रदान करते हुए फरमाया कि जैन दर्शन के अनेक आयाम या स्तंभ हैं। उनमें प्रमुख हैंआत्मवाद, कर्मवाद, लोकवाद।
ये त्रिआयामी जैन दर्शन है और तीनों परस्पर संबंधित भी है। आत्मवाद है, तो कर्मवाद की सत्ता हो सकती है। आत्मा है, तो कर्म होगा। लोकवाद, लोक है नहीं तो आत्मा कहाँ रहेगी। इसलिए लोकवाद भी जुड़ा हुआ है।
जैन दर्शन में आत्मा के शाश्‍वत अस्तित्व को स्वीकारा है। इस जीवन में आत्मा है, हमेशा थी और हमेशा रहेगी। वर्तमान में है ही। ईश्‍वरवाद की बात आती है। ईश्‍वर कृतित्व को जैन दर्शन भी स्वीकार करता है, किसी संदर्भ से। वैसे जैन दर्शन ईश्‍वर कृतित्ववाद को नहीं मानता।
जैन दर्शन में आत्मा को परम ऐश्‍वर्य संपन्‍न माना है। हमारे यहाँ आत्मा ही ईश्‍वर है। आत्मा परम शक्‍तिशाली है। आत्मा ही कर्मों की कर्ता है। बिना किसी दोष के निर्दोष रूप में जैन दर्शन ईश्‍वर कृतित्व को स्वीकार करता है। जिसने भव के बीजांकुर राग आदि का नाश कर दिया, मैं उसको नमस्कार करता हूँ। भले उसको ब्रह्मा, विष्णु, महादेव या जिन अर्हत कह दो। ऐसा आचार्य हेमचंद्र ने कहा है।
राग-द्वेष मुक्‍त आत्मा को मेरा नमस्कार है, इस तरह ईश्‍वर कृतित्व को स्वीकार करता है। जैन दर्शन में आत्मवाद के साथ कर्मवाद प्रतिष्ठित है। जैन दर्शन में कई स्थानों पर कर्मवाद के संदर्भ में सिद्धांत-अवधारणाएँ मिलती हैं।
कर्मवाद का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत हैपुण्य-पाप अपना-अपना होता है। हम अपना ही पुण्य-पाप भोगते हैं। पुण्य-पापों में संयोगता-संबंध हो सकता है। पूर्वजों के कृतित्व का लाभ हम ले सकते हैं। उन्होंने मार्ग प्रशस्त कर दिया। निमित्त तो भले दूसरे मिल जाएँ पर निश्‍चय नय तो अपना पुण्य है, तो भोग रहे हैं।
अलग-अलग नयों से बात का यथार्थ्य भी प्रकट हो सकता है। हमारे जीवन के व्यक्‍तित्व को, कृतित्व को कर्मवाद के द्वारा व्याख्यायित किया जा सकता है। आठ कर्म बताए गए हैं। इन आठ कर्मों के आलोक में जीवन की व्याख्या की जा सकती है। हम हमारे पूर्वाचार्यों को देखें, कितना उनमें ज्ञान था। कितना उनका ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम था।
ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम के बिना ग्रहण करने की शक्‍ति और प्रतिपादन करने की शक्‍ति संभव नहीं हो सकती। आचार्यश्री तुलसी को कितने विषयों का ज्ञान कंठस्थ था। विशेष ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम हो तो ऐसा हो सकता है। ये ज्ञानात्मक व्यक्‍तित्व ज्ञानावरणीय कर्म के विलय से जुड़ा हुआ है।
सात वेदनीय कर्म का योग या वेदनीय कर्म की अनुकूलता है, तब शरीर में शारीरिक सक्षमता है, कायिक क्षमता
अच्छी है तो परिश्रम कर सकता है। मन में शांति है, विनम्रता है तो उसका मोहनीय कर्म हल्का है। नाम-ख्याति हो रही है, वाणी के प्रति आकर्षण है, यश है, कीर्ति है तो नाम कर्म का, गौत्र कर्म की अनुकूलता का योग है।
शक्‍ति संपन्‍नता है, तो अंतराय कर्म विलयता की बात हैं ये हमारे जीवन का जो व्यक्‍तित्व है, हम उसे कर्मों के आलोक में देख सकते हैं। एक ज्योतिषी कह देगा कि ग्रहों का प्रभाव है। एक दार्शनिक कह देगा कि कर्मों का प्रभाव है। एक बात की अलग-अलग कोणों से व्याख्या की जा सकती है।

शास्त्रकार ने कहा कि किए हुए कर्मों से उनको भोगे बिना या क्षीण किए बिना छुटकारा नहीं मिलता। इसलिए खुद के कर्म खुद को भोगने होते हैं। ‘जैसी करणी वैसी भरणी’। जैसा करोगे, वैसा भरोगे। आदमी गलत काम, बुरे काम, हिंसा-झूठ आदि से जितना संभव हो सके बचने का प्रयास करे। शुभ योगों में रहने का प्रयास करे, साधना में आगे बढ़े, इससे कल्याण हो सकता है।
कल से तेरस है, तेला शुरू होने का क्रम है। जिनसे हो सके तेला करने की अनुकूलता हो प्रयास करें। तपस्या में उत्साह हो, आगे बढ़ो, एक-एक कदम आगे बढ़ाओ। चतुर्मास में तपस्या की अनेक बारियाँ चल सकती हैं।
पूज्यप्रवर के श्रीचरणों में साध्वी सोमयशा जी एवं सहवर्तिनी साध्वियों ने, साध्वी साधनाश्री जी, मुनि शांतिप्रिय जी, मुनि पारसकुमार जी ने अपने भावों की अभिव्यक्‍ति दी।
गुरुदेव के चरणों में हिरेन चोरड़िया, नवीन वागरेचा, नीतू ओस्तवाल, अभिषेक कोठारी, मनीषा हिरण, कुलदीप मालू, विमल पितलिया, टीपीएफ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष पंकज ओस्तवाल, महासभा से अशोक सिंघी, बलवंत रांका, लक्ष्मीलाल गांधी, विनोद पितलिया ने अपनी भावना अभिव्यक्‍त की।
कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने लेश्याओं को विस्तार से समझाया।