जिस सेवा के साथ नाम की कामना न हो वह सेवा पवित्र होती है: आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

जिस सेवा के साथ नाम की कामना न हो वह सेवा पवित्र होती है: आचार्यश्री महाश्रमण

आचार्यश्री की सन्निधि में उपस्थित होकर हो जाता हूँ रिचार्ज - संघ प्रमुख मोहनराव भागवत

रतनगढ़, 3 जुलाई, 2022
महाश्रमण के महापर्याय युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण जी आज प्रातः रतनगढ़ स्थित गोलछा ज्ञान मंदिर पधारे। कुछ समय पश्चात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत भी पूज्यप्रवर की सन्निधि में पधारे। दो-दो संघ प्रमुखों को एक मंच पर देखकर रतनगढ़वासी हर्ष की अनुभूति कर रहे थे। मुख्य प्रवचन में पावन प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए महामनीषी ने फरमाया कि शास्त्र में कहा गया है कि जो इच्छा होती है, वह बढ़ते-बढ़ते इतनी बढ़ सकती है कि आकाश के समान अनंत हो जाती है। ये इच्छा इतनी हो जाती है कि आदमी को पर्वत जितना सोना मिल जाए, चाँदी मिल जाए तो भी लोभी आदमी को संतोष नहीं होता। ये कामना होती है, वह दुःख का एक बड़ा कारण बन जाती है। आदमी के दुःख के मूल में लोभ और कामना होती है।
श्रीमद् भगवत गीता में स्थितप्रज्ञ की बात आई है। हमारे जैन वाङ्मय में भी वीतराग की बात आई है। मैं वीतराग और स्थितप्रज्ञ में समानता देखता हूँ। जब सब कामों को व्यक्ति छोड़ देता है, जो मनोगत है और अपने आपसे संतुष्ट रहता है, तब वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है। आदमी की कामनाएँ कार्य करने में भी बाधा डाल सकती है। दो शब्द हैंµअनुश्रोत और प्रतिश्रोत। अनुश्रोत यानी श्रोत के साथ बहना। श्रोत के प्रतिकूल चलना कठिन होता है। साधना और अध्यात्म के क्षेत्र में प्रतिश्रोतगामी बहना होता है। भौतिकता, सांसारिक कामनाएँ हैं, इनसे प्रतिकूल चलो, निष्काम बनो। कामनाओं से विरत होने का प्रयास करो।
प्रतिश्रोत में चलने वाला व्यक्ति कोई आध्यात्मिक उपलब्धि प्राप्त कर सकता है। सांसारिक श्रोत में बहना विशेष उपलब्धि नहीं है। सुख और आत्मिक सुख के लिए कामनाओं को अतिक्रांत करो। दुःख अपने आप अतिक्रांत हो जाएगा। संतोष में सुख है। असंतोष का अंत नहीं होता और संतोष परम सुख देने वाला होता है, यह एक प्रसंग से समझाया। आदमी अच्छी कामना यह रखे कि मैं अच्छी साधना करूँ, अच्छा संयम का जीवन जी सकूँ। दूसरों की आध्यात्मिक सेवा कर सकूँ। आदमी निष्काम सेवा करे।
कार्यकर्ता तीन प्रकार के होते हैंµएक तो काम कम नाम ज्यादा, दूसरे काम भी करते हैं, पर साथ में नाम भी चाहिए। उत्तम श्रेणी के कार्यकर्ता को नाम नहीं चाहिए, उन्हें तो काम चाहिए। वो निष्काम सेवा करने वाले होते हैं। आदमी जिस किसी क्षेत्र में रहे, यही चिंतन हो कि मुझे नाम नहीं चाहिए, सेवा चाहिए। सेवा धार्मिक जगत में चलती है, तो लौकिक जगत में भी सेवा चलती है। सेवा के साथ नाम न जुड़े तो वह पवित्र सेवा होती है। हम तीन बातें यदा-कदा समझाते हैंµसद्भावना, नैतिकता और नशामुक्ति। इनको विस्तार से समझाया। ये तीन बातें जिसके जीवन में होती हैं, वह आदमी बढ़िया, उसका जीवन बढ़िया होता है।
आज रतनगढ़ आना हुआ है। गोलछा ज्ञान मंदिर में कितने आचार्यों के प्रवास हुए हैं। आज राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंचालक मोहनराव भागवत का समागमन हुआ है। हर वर्ष प्रायः आपका आना मिलना होता है। जो मनीषी, चिंतनशील व्यक्ति होते हैं, संगठन के नेतृत्व को धारण करने वाले होते हैं, ऐसे व्यक्तियों का भाषण-चिंतन कल्याण के काम आ सकता है। आपका आना ही अपने आपमें महत्त्वपूर्ण होता है। इस अवसर पर शासनमाता को याद किया। नई साध्वीप्रमुखाश्रीजी का परिचय करवाया। अहिंसा यात्रा औपचारिक रूप में तो संपन्न कर दी पर जहाँ साधुओं का विचरण होता है, वो अहिंसा यात्रा ही है। भागवत साहब भी खूब आध्यात्मिक, धार्मिक सेवा देते रहें। स्वयं की साधना करते हुए चित्त समाधि में रहे, खूब अच्छा रहे, मंगलकामना। सरसंघचालक मोहनराव भागवत ने अपने उद्बोधन में कहा कि अभी जो आचार्यश्री का प्रवचन हुआ है, वो व्यक्तिगत एवं राष्ट्रीयता के लिए तथा संपूर्ण मानवता के लिए कल्याणकारी है। अपने यहाँ अनेक पंथ-संप्रदाय हैं, अनेक जातियाँ हैं, भाषा हैं, प्रांत हैं पर विविधता में एकता है। हमारे यहाँ जीवन के विश्लेषण का जो स्वरूप है, वो सभी के लिए एक है। सुख बाहर नहीं है, अपने अंदर है। अंदर खोजने से शाश्वत सुख की प्राप्ति होती है।
हम जो कर्म करते हैं, उसका फल हमें ही भोगना पड़ता है। करोगे तो भरोगे। अहिंसा-सत्य आदि दस तत्त्व आदमी में होने चाहिए। आत्मीयता में सुख है। हम हमारे शरीर, मन और बुद्धि के स्वयं मालिक बनें। सृष्टि की सारी बातें आपस में जुड़ी हैं, ये विज्ञान भी मानता है। मैं आप जैसे संतों के सान्निध्य में आध्यात्मिक रूप से रिचार्ज होने के लिए आता हूँ। आपश्री से सदैव प्रेरणा मिलती है। सरसंघ आरएसएस के संस्थापक डॉ0 हेडगेवर पर एक शोध-ग्रंथ रश्मि बैद एवं डॉ0 सरिता शर्मा द्वारा लिखा गया है, उसे पूज्यप्रवर एवं भागवतजी को समर्पित किया गया। किशनलाल जी ने इस ग्रंथ के बारे में समझाया। पूज्यप्रवर एवं मोहन भागवत के स्वागत में प्रवास व्यवस्था समिति के अध्यक्ष भोजराज बैद, स्वागताध्यक्ष तुलसी दुगड़ ने भी अपनी भावना अभिव्यक्त की। व्यवस्था समिति द्वारा मोहन भागवत का सम्मान किया गया।
साध्वीप्रमुखाश्रीजी ने कहा कि अमृत क्या है? एक व्यक्ति सर्दी से ठिठुर रहा है, उसे अग्नि का संयोग मिल जाए वह अमृत है। भूखे आदमी को भोजन मिल जाए वह उसे अमृत तुल्य प्रतीत होता है। एक व्यक्ति को अचानक राज्य का सम्मान मिल जाए उस सम्मान को वह अमृत तुल्य समझता है। एक व्यक्ति है, जिसे अपने गुरु या साधु के दर्शन प्राप्त हो जाते हैं, तो साधुओं का दर्शन होना ही अमृत का हेतु बन जाता है। परमपूज्य आचार्यप्रवर इसी अमृत को जनता में वितरित कर रहे हैं। इस अमृत को पाकर लोग अपनी समस्याओं का समाधान कर रहे हैं। उन्हें अलौकिक शांति की अनुभूति हो रही है। वे व्यक्ति धन्य होते हैं, जिन्हें गुरु का अमृत पान मिलता है, अमृत वचन जिसको उपलब्ध होते हैं।
स्थानीय तेरापंथ महिला मंडल ने स्वागत गीत की प्रस्तुति दी। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।