शुद्धता, सिद्धता और बुद्धता पाने के लिए करें आत्मा से युद्ध: आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

शुद्धता, सिद्धता और बुद्धता पाने के लिए करें आत्मा से युद्ध: आचार्यश्री महाश्रमण

श्रीडूंगरगढ़, 23 जून, 2022
साधना और संयम के डूंगर पर विराजित महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमण जी 16 किलोमीटर का प्रलंब विहार कर अपनी गुरु दर्शन भूमि श्रीडूंगरगढ़ पधारे। पदार्पण के पश्चात् आचार्यप्रवर साध्वियों के सेवाकेंद्र पधारकर, सेवाग्राही और सेवादायी साध्वियों की सार-संभाल कर लगभग 11 बजे तेरापंथ भवन पधारे। मुख्य प्रवचन में जन-जन के उद्धारक आचार्यश्री महाश्रमण जी ने पावन पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि दुनिया में कभी-कभी परिग्रह के लिए न्याय पाने के लिए या और किसी कारण से संघर्ष हो सकता है। शास्त्रकार ने भी युद्ध की बात बताई है। कहा-लड़ो, युद्ध करो। पर अपने साथ करो।
दूसरों के साथ युद्ध किया जाता है, कोई विजयी भी बन जाता है। शास्त्र में कहा गया-एक आदमी दस लाख यौद्धाओं को संग्राम में जीत लेता है, ऐसा व्यक्ति विजयी तो है, परंतु शास्त्रकार ने कहा कि एक आदमी अपनी आत्मा को जीत लेता है, वह उसकी परम विजय होती है। शास्त्रकार ने कहा है कि अपने साथ युद्ध करने से सुख मिलता है। हम अध्यात्म के विषय में बताएँ कि हमारी आत्मा शुद्ध स्वरूप वाली है, पर वर्तमान में उस पर कर्मों का आवरण आया हुआ है। सिद्धों की आत्मा तो शुद्ध है, सिद्ध है, बुद्ध है। परंतु हमारी आत्मा अशुद्ध, असिद्ध और अबुद्ध है। अशुद्ध इसलिए है कि आठ कर्मों ने घेरा डाल रखा है। विकृति पैदा कर रखी है, विकास भीतर में है। आत्मा अभी संसारी अवस्था में है, मुक्ति को प्राप्त नहीं हुई है, इसलिए वर्तमान में हमारी आत्मा असिद्ध है। वर्तमान तक केवलज्ञान प्राप्त नहीं हुआ, इस दृष्टि से अबुद्ध है। अशुद्धता, असिद्धता, अबुद्धता कैसे मिटे?
सर्वज्ञान प्रकाशित हो जाए, केवलज्ञान प्राप्त हो जाए, अज्ञान मोह का विसर्जन हो जाए, राग और द्वेष का क्षय हो जाए, तो हमारी आत्मा एकांत सौख्य को प्राप्त हो सकती है। राग-द्वेष मिट जाएँगे तो अशुद्धता दूर हो जाएगी। सर्वज्ञान प्रकाशित होगा तो अबुद्धता दूर हो जाएगी। आठों कर्म दूर हो जाएँगे तो असिद्धता दूर हो जाएगी। शुद्धता, सिद्धता और बुद्धता रह सकेगी मोक्ष संप्राप्त अवस्था में। अशुद्धता, असिद्धता और अबुद्धता तो दूर करने के लिए कुछ संघर्ष की अपेक्षा है। मुख्य संघर्ष मोहनीय कर्म के साथ करने का होता है। मोहनीय कर्म में मूलतः राग और द्वेष है, इनका नाश करने का प्रयत्न करें। मनोज्ञ के प्रति राग और अमनोज्ञ के प्रति द्वेष भाव आ जाता है। यह राग-द्वेष चल रहा है, तभी मानो संसार चल रहा है। ये समाप्त हो जाए तो संसारी अवस्था समाप्ति को प्राप्त हो जाएगी। तात्त्विक भाषा में बताएँ तो औद्रयिक भाव और क्षायोपशमिक भाव का संघर्ष अपेक्षित है। युद्ध में कभी-कभी मोहनीय कर्म मजबूती के साथ सामने आ जाता है तो कभी हमारा क्षायोपशयिक भाव सामने आ जाता है। कभी कर्म सबल रूप में सामने आते हैं, कभी जीव सबल रूप में सामने आते हैं। पर संघर्ष करते-करते एक स्थिति यह आ सकती है कि मोहनीय कर्म संपूर्णतया विनाश को प्राप्त हो जाता है।
मोहनीय कर्म के साथ युद्ध करें तो हथियार-साधन क्या है? बिना हथियार के लड़ने वाला तो कोई विरल व्यक्ति हो सकता है। वे साधन है-क्षमा की साधना। उपशम के अभ्यास के द्वारा गुस्से को जीतें, ऋजुता-मार्दव के द्वारा अहंकार को आर्जव के द्वारा माया और संतोष के द्वारा लोभ को जीतें। ये उपशम, आर्जव, मार्दव, संतोष हथियार है। इनके द्वारा मोहनीय कर्म को जीतने का प्रयास करना चाहिए। धर्म का जगत भी एक प्रकार का युद्ध का क्षेत्र होता है, जहाँ अपने साथ युद्ध होता है। अणुव्रत भी एक प्रकार का हथियार है। हिंसा-अनैतिकता के सामने खड़ा हुआ आंदोलन है। गुरुदेव तुलसी ने लंबी यात्राएँ करके लोगों को अहिंसा-नैतिकता, संयम का संदेश दिया था। प्रेक्षाध्यान भी अध्यात्म की दृष्टि से किया जाए तो राग-द्वेष को कम करने का साधन है।
मोहनीय कर्म भी एक बीमारी है, निराकरण हो, दूर करने का प्रयास हो। यह अपेक्षित है। ज्ञान देना है, समझाना है, किस आदमी को किस तरीके से उत्तर देना, ये आचार्य भिक्षु अच्छी तरह जानते थे। सामने वाले के अभिप्राय को पकड़कर आदमी उसके प्रश्न का उत्तर दे तो क्रम ठीक बैठ सकता है। हमारे धर्मसंघ में आचार्य भिक्षु से लेकर आचार्य महाप्रज्ञ जी तक अतीत में दस आचार्य हुए हैं। उन्होंने अपने ज्ञान, अपनी साधना से कुछ दूसरों को देने का प्रयास भी किया है। कर्म हमारे शत्रु भी हैं, उनके साथ हमारा युद्ध भी हो और कैसे इन कर्मों के प्रभाव से हमारी आत्मा मुक्त हो सके, कर्मों का अभाव हो सके। हम शुद्धता, सिद्धता और बुद्धता-इन स्थितियों को प्राप्त कर सकें, इसके लिए यह अध्यात्म साधना है। सामायिक, स्वाध्याय, ध्यान से इन राग-द्वेष रूपी विकारों को दूर करने का प्रयास करें।
गृहस्थ के जीवन में भी सदाचार रहना चाहिए। हम तीन बातें-सद्भावना, नैतिकता और नशामुक्ति का प्रचार करते रहे हैं। आज हमारा लंबे अर्से के बाद श्रीडूंगरगढ़ आना हुआ है। यह मेरी गुरुदर्शन की भूमि रही है। मैं दीक्षा लेने के बाद श्रद्धेय मुनिश्री सुमेरमल जी ‘लाडनूं’ के साथ यहाँ आया था। यहाँ गुरुदेव तुलसी के दर्शन प्रथम बार हुए थे। यहाँ कई वर्षों से साध्वी सेवाकेंद्र भी है। श्रद्धा का क्षेत्र भी है। यहाँ खूब धार्मिक आध्यात्मिक साधना, सेवा चलती रहे। संकल्प स्वीकार करवाएँ। पूज्यप्रवर के स्वागत-अभिनंदन में प्रवास व्यवस्था समिति के अध्यक्ष जतनलाल पारख, तेरापंथ समाज, सभाध्यक्ष विजयराज सेठिया, भीखमचंद पुगलिया, बच्छराज दुगड़, (वाइस चांसलर, जैविभा), टीपीएफ अध्यक्ष नरेश पारख, अशोक पारख ने अपनी भावना अभिव्यक्त की।