उपासना

स्वाध्याय

उपासना

आचार्य शय्यंभव

आचार्य शय्यंभव के व्यक्‍तित्व में असाधारण गुणों का विकास था। तीर्थंकर महावीर के वे चतुर्थ पट्टधर थे। श्रुतधर आचार्यों की परंपरा में उनका द्वितीय क्रम था। आचार्य शय्यंभव का ब्राह्मण संस्कृति से श्रमण संस्कृति में प्रवेश पाने का घटना प्रसंग इतिहास का अत्यंत रोचक पृष्ठ है।
आचार्य शय्यंभव के गुरु आचार्य प्रभव थे। प्रभव प्रथम श्रुतधर आचार्य थे। आचार्य शय्यंभव को प्रभव से जैन धर्म का बोध प्राप्त हुआ। तदनन्तर शय्यंभव ने उनसे मुनि दीक्षा ग्रहण की। आगमश्रुत और पूर्वश्रुत का प्रशिक्षण पाया। प्रभव से पूर्व की गुरु-परंपरा में सर्वज्ञ श्री-संपन्‍न जंबू और गणधर सुधर्मा हुए।
आचार्य शय्यंभव का जन्म ब्राह्माण परिवार में वी0नि0 26 (वि0पू0 434) में हुआ था। उनका गोत्र वत्स था। राजगृह उनकी जन्मभूमि थी।
शय्यंभव गृहस्थ जीवन में अहंकारी विद्वान् थे। वे स्वभाव से प्रचंड क्रोधी और निर्ग्रन्थ धर्म के प्रबल विरोधी भी थे। यज्ञ आदि अनुष्ठानों के आयोजनों में उनकी प्रमुख भूमिका रहती थी। वेद-वेदांग दर्शन संबंधी उनका ज्ञान अगाध था। आचार्य प्रभव को शय्यंभव जैसे महान् याज्ञिक ब्राह्मण की शिष्य के रूप में प्राप्ति विशेष प्रयत्न पूर्वक ही हुई थी।
आचार्य का सबसे बड़ा दायित्व भावी आचार्य का निर्णय करना होता है। इस महत्त्वपूर्ण दायित्व की चिंता सुधर्मा और जंबू को नहीं करनी पड़ी थी। सुधर्मा के सामने जंबू और जंबू के सामने प्रभव जैसे योग्य व्यक्‍ति थे। आचार्य प्रभव का पदारोहण चोरानबे वर्ष की अवस्था में हुआ था।
उनके जीवन का यह सन्ध्याकाल था। पश्‍चिम यामिनी में एक बार आचार्य प्रभव ने सोचामेरे बाद गणभारवाहक कौन होगा? उन्होंने श्रमण संघ, श्रावक संघ एवं जैन संघ का क्रमश: अवलोकन किया। गणभार को वहन करने योग्य कोई भी व्यक्‍ति उनके द‍ृष्टिगत नहीं हुआ। उनका ध्यान यज्ञनिष्ठ ब्राह्मण विद्वान् शय्यंभव पर केंद्रित हुआ। वे नेतृत्व-कला में सर्वथा समर्थ प्रतीत हो रहे थे पर उनके सामने जैन-दर्शन की बात करना संकट का संकेत था।
(क्रमश:)