ध्यान और स्वाध्याय हैं आत्मशुद्धि के साधन: आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

ध्यान और स्वाध्याय हैं आत्मशुद्धि के साधन: आचार्यश्री महाश्रमण

भामटसर, 7 जून, 2022
अहिंसा यात्रा प्रणेता आचार्यश्री महाश्रमण जी गंगाशहर की ओर अग्रसर हैं। नोखा गाँव में रात्रि प्रवास कर आचार्यप्रवर 9 किलोमीटर विहार कर भामटसर पधारे। मुख्य प्रवचन में परम पावन महामनीषी ने फरमाया कि आत्मा की सिद्धि कैसे हो सकती है? उसके उपायों की चर्चा शास्त्र में की गई है। बताया गया है कि जो व्यक्ति स्वाध्याय और सध्यान में रत रहने वाला होता है, भावों में पाप नहीं होता, तपस्यारत रहता है, ऐसे व्यक्ति की आत्मा निर्मलता को प्राप्त हो जाती है। स्वाध्याय भी एक आत्मशुद्धि का साधन है। ध्यान का भी अपना महत्त्व है। स्वाध्याय अनेक रूपों में किया जा सकता है। जिज्ञासा, अध्ययन, चिंतन-मनन करना भी स्वाध्याय है। धर्मकथा भी एक स्वाध्याय है। ध्यान की साधना की भी एक प्रविधि है, एक प्रयोग है। मन को कैसे एकाग्र किया जा सके, कैसे निर्विचारता की स्थिति में प्रवेश पाया जा सके। मन को कैसे निर्मल बनाया जा सके। प्रेक्षाध्यान भी ध्यान की एक विधि है। ध्यान के चार प्रकार बताए गए हैंµआर्त, रौद्र, धर्म, शुक्ल। आर्त और रौद्र तो अशुभ ध्यान हैं। धर्म और शुक्ल सद्ध्यान है। राग-द्वेषमुक्त रहना, मन को किसी एक जगह एकाग्र रखना, वाणी का संयम रखना यह ध्यान आत्मशुद्धिकारक बन सकता है।
जप व ध्यान करते समय मन में विचारों का प्रवाह चलता है। पर इसके लिए माला जप को न छोड़ें, गलत विचारों को छोड़ें। अच्छे मंत्र का पाठ करना शुरू कर दें। जैसे मूल बीमारी के लिए दवा तो लेनी होती है, पर साइडइफेक्ट के लिए दूसरी गोली लेनी होती है। मन में ये चिंतन करें कि ये गलत विचार मेरे नहीं है, मेरा इनको समर्थन नहीं है। ये गलत विचारों का प्रतिकार है।
शरीर को स्थिर रखना ध्यान का एक अंग हो जाता है। वाणी का संयम भी और मन की चंचलता का निवारण भी ध्यान के अंग हैं। राजर्षि प्रसन्नचंद्र के प्रसंग से समझाया कि भावों से व्यक्ति कहाँ से कहाँ पहुँच जाता है। भीतर का मन का ध्यान कहाँ तो नरक में ले जाने वाला और कहाँ केवलज्ञान करा देने वाला हो जाता है। मोक्ष में ले जाने वाला बन सकता हैं यह सब भावों का जगत है, हम सत्-प्रयास करें कि हमारा भावात्मक जगत निर्मल रहे, राग-द्वेष मुक्त रहें। मन, वाणी और शरीर पर कंट्रोल रखना, ऐसी हमारी ध्यान की साधना हमारी आत्मा को निर्मल बनाने वाली सिद्ध हो सकती है। निर्जरा के बारह भेदों में ध्यान भी एक भेद है। ध्यान में शरीर की स्थिरता, शिथिलता और श्वास को दीर्घ कर लें। श्वास लेते समय णमो और छोड़ते समय सिद्धाणं का उच्चारण करना सीधा सा उपयोग है। लेटकर या बैठकर कैसे ही कर सकते हैं। हम ध्यान- स्वाध्याय जितने उपयोग हो सके करें और मोक्ष की साधना में आगे बढ़ें, यह काम्य है। पूज्यप्रवर के स्वागत में ज्ञानशाला बीकानेर ने सुंदर प्रस्तुति दी। बीकानेर की महिलाओं ने गीत की प्रस्तुति दी। कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने समझाया कि भीतर ही भीतर रमण करने वाला वीतराग बन सकता है। चोरी का फल गलत है। पर सामायिक के संकल्प से कल्याण हो सकता है।