सत्यं शिवं सुंदरम्

सत्यं शिवं सुंदरम्

शासनश्री साध्वी यशोधरा
बीसवीं सदी के भारतीय धर्मपुरुषों में आचार्य तुलसी का अप्रतिम स्थान है। वे तेरापंथ धर्मसंघ के श्लाका पुरुष हैं। उनका संपूर्ण जीवन लोकमंगल के लिए समर्पित था। सत्यं शिवं सुंदरम् के वे मूर्तरूप थे। अणुव्रत अनुशास्ता आचार्य तुलसी किसी व्यक्ति का वाचक नाम नहीं है, किंतु धर्म की व्यापक अवधारणा का प्रतिनिधि है। ‘वाचनाप्रमुख आचार्य तुलसी’ यह नाम विशाल ज्ञानराशि का प्रतिनिधि है। उन्होंने जो कहा-वह श्रुत बन गया। जो लिखा वह वाङ्मय बन गया। उनका व्यक्तित्व आकाश की भाँति अमाप्य है। महाश्रमणी साध्वीप्रमुखा के शब्दों में आचार्यश्री का कर्तृत्व धरती से उदित होकर आकाश तक पहुँच गया है। अनवरत यात्रा का नाम है-आचार्य तुलसी। लाखों लोगों के श्रद्धेय वंदनीय, अर्चनीय होने पर भी वे स्वयं को मानव ही मानते हैं। दक्षिण यात्रा में जब उन्हें पूछा जाता, आप कौन हैं? उनका सहज उत्तर होता-‘मैं एक मानव हूँ फिर धार्मिक, जैन, तेरापंथ का आचार्य---
मानव को सही मानव बनाने के लिए ही उन्होंने अणुव्रत आंदोलन का प्रवर्तन किया। इसके माध्यम से सफल धर्मक्रांति की। ग्वालियर से एक संघ ने गुरुदर्शन किए। परिचय गोष्ठी हो रही थी। एक पत्रकार ने कहा-आचार्यजी! मैं जैन नहीं हूँ। प्रतिप्रश्न करते हुए आपने कहा-
गुडमेन तो हैं? गुडमेन बन गए तो फिर जैन, बौद्ध, इस्लाम आदमी 
आदमी ही नहीं है तो ये धार्मिक लेबल औरों को ही नहीं अपने आपको धोखा देना है। धर्म को व्यापक बनाकर उसे सत्य के आसन पर आसीन किया है। धर्म की विकृतियों पर प्रहार करते हुए उन्होंने धार्मिकों को चेतावनी दी। ‘इस वैज्ञानिक युग में ऐसे धर्म न चल पाएँगे। केवल रूढ़िवाद पर जो चलते रहना चाहेंगे।’ उनका यह उद्धरण विचारोत्तेजक है-‘भले ही आप वर्ष भर में धर्मस्थान में न जाएँ, मैं इसे क्षम्य मान लूँगा। बशर्ते कि आप कार्य क्षेत्र को ही धर्मस्थान बना लें, मंदिर बना लें।’ इसीलिए उन्होंने ग्रंथों, पंथों से निकालकर प्रेक्षाध्यान के माध्यम से धर्म का प्रायोगिक रूप जनता के सामने प्रस्तुत किया। जिससे हजारों-लाखों लोगों ने तनावमुक्त जीवन जीने का व आदतों को बदलने का अभ्यास किया है।
इस प्रसंग में वे धार्मिकों से प्रश्न करते हैं-व्यापार में जो अनैतिकता की जाती है, क्या वह मेरी प्रशंसा मात्र से धुल जाने वाली है? दिन भर की जाने वाली ईर्ष्या, आलोचना एक-दूसरे को गिराने की भावना का पाप, क्या मेरे पैरों में सिर रखने मात्र से साफ हो जाएँगे? ये प्रश्न मुझे बड़ा बेचैन कर देते हैं। भगवान् का चरणामृत लेने वाले आज बहुत मिल सकते हैं। उनकी सवारी पर फूल चढ़ाने वालों की भी कमी नहीं है। पर भगवान के पथ पर चलने वाले कितने हैं? उन्होंने धर्मक्रांति का सिंहनाद कर धार्मिकों की सुप्त चेतना को झकझोरा है। धर्म को परिभाषित करते हुए उन्होंने लिखा-‘मेरे धर्म की परिभाषा यह नहीं कि आपको तोता रटन की तरह माला फेरनी होगी। मेरी दृष्टि में आचार, विचार और व्यवहार की शुद्धता का नाम धर्म है।’
जहाँ लाखों-लाखों लोग उन्हें एक जैन मुनि, तेरापंथ धर्मसंघ के नवम् अधिशास्ता के रूप में जानते पहचानते हैं। श्रद्धा-समर्पण कर अपने आपको कृतार्थ मानते हैं। वहाँ करोड़ों-करोड़ों व्यक्तियों की नजर में उनका व्यक्तित्व मानवता के मसीहा, मानव धर्म के प्रवर्तक, युगद्रष्टा, मानवीय संवेदना के सजग प्रहरी, नैतिक एवं मानवीय मूल्यों के पुनः प्रतिष्ठापक के रूप में उभरा है। संपूर्ण मानव जाति के उदितोदित मंगल भविष्य के लिए वे अत्यंत संवेदनशील हैं। इसीलिए वे व्यक्ति से लेकर विश्वजनीन समस्याओं के संदर्भ में न केवल सोचते हैं परंतु उनका समुचित समाधान भी प्रस्तुत करते हैं। हजारों-हजारों किमी की कोलकाता से कच्छ, पंजाब से कन्याकुमारी तक की उनकी पदयात्राएँ जन-जागरण का सघन अभियान था। शिक्षा के क्षेत्र में जैन विश्व भारती संस्थान विश्वविद्यालय उनका महान अवदान है। आचार्य तुलसी एक अमरगाथा हैं युग सृजन की। प्रबल प्रेरणा है जन जागरण की। उनके अवदानों की लंबी शृंखला है। उनके अनंत उपकारों के प्रति कृतज्ञता शब्द बहुत बोना पड़ जाता है। महाप्रयाण की 26वीं पुण्यतिथि पर अंतहीन श्रद्धासिक्त नमन, वंदन, अभिवंदन, भावभीनी श्रद्धांजलि।