संबोधि

स्वाध्याय

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क्रिया-अक्रियावाद


(7) गर्भान्ते गर्भमायान्ति, लभन्ते जन्म जन्मन:।
मृत्यो: मृत्यु×च गच्छन्ति, दु:खाद् दु:खं व्रजन्ति च॥

(पिछला शेष) आस्तिक सिर्फ आत्म-प्राप्त व्यक्‍ति की वाणी में आश्‍वस्त हो जाता है। वह कहता है‘आत्मा है’ किंतु स्वाद नहीं चखता। वह धर्म को अच्छा मानता है। धर्म के फल के प्रति आकर्षण होता है और धार्मिक विधि-विधानों का अनुसरण भी करता है। लेकिन धर्म के प्रत्यक्ष दर्शन की कठोरतम साधना पद्धति का अनुगमन नहीं करता और न वह इंद्रिय-विषयों से भी परामुख होता है। इंद्रिय-विषय भी उसे अपनी ओर खींचते हैं और धर्म का आकर्षण भी। धार्मिक जीवन का अर्थ होता हैविषयों के प्रति सर्वथा अनाकर्षण। विषयों का संबंध-विच्छेद नहीं किंतु आसति का विच्छेद। धार्मिक व्यक्‍ति केवल विषयों से ही विमुख नहीं होता, अपितु कर्म-बंध के ोतों के प्रति भी उदासीन होता है। राग-द्वेष और कषाय-चतुष्टय भी उसके तनुतन होते चले जाते हैं। उसके जीवन में अनुकंपा, सहिष्णुता, सौहार्द, सत्यता, सरलता, संतोष, विनम्रता आदि गुण सहज उद्भावित होने लगते हैं। जहाँ जीवन में धर्म का अवतरण नहीं होता, वहाँ उपरोक्‍त स्थितियों का दर्शन नहीं होता। इससे स्पष्ट अनुमान किया जा सकता है कि धर्म का अभी अंतस्तल से स्पर्श नहीं हुआ है। फिर भी वह धर्म-विहीन नास्तिक व्यक्‍ति की भाँति क्रूर नहीं होता। धर्म-अधर्म के फल के प्रति उसके मानस में आस्था होती है, लोक-भय होता है।
नास्तिक के लिए आत्मा और धर्म का प्रश्‍न ही खड़ा नहीं होता। वह मानने और जानने-दोनों से दूर होता है। उसकी आस्था का केंद्र केवल ऐहिक विषय होता है। अर्थ और कामये दो ही उसके जीवन के ध्येय होते हैं। वह इन्हीं की परिधि में जीता है और मरता है। ये कैसे संवर्द्धित हों, उसका जीवन इन्हीं के लिए है। इनके संरक्षण और संवर्द्धन में कौशल अर्जन करता है और इनके लिए कृत्य और अकृत्य की मर्यादा के अतिक्रमण में भी वह संकोच नहीं करता। ऐसे व्यक्‍ति धर्म की द‍ृष्टि से तो अनुपादेय हैं ही किंतु सामाजिक और राजनैतिक द‍ृष्टि से भी कम ग्रहणीय नहीं होते। उपरोक्‍त श्‍लोकों में उनकी जीवन-चर्या का ही प्रतिबिंब है।
आत्मा में विश्‍वास करने वाला व्यक्‍ति प्रत्येक आत्मा की स्वतंत्रता में विश्‍वास करता है। उसे सुख प्रिय है तो वह यह भी मानता है कि औरों को भी सुख प्रिय है। इसलिए वह अपने सुख के लिए दूसरों का सुख छीनने में क्रूर नहीं बन सकता।
आजीविका आदि में भी उसका ध्येय रहता हैधर्म-पूर्वक व्यवसाय करना। हिंसा, असत्य आदि का प्रयोग वह जीवन में कम से कम करना चाहेगा। अनात्मवादी की द‍ृष्टि में धर्म कुछ नहीं है, इसलिए सत्कर्म में उसका विश्‍वास नहीं होता। वह शरीर की भूख को ही शांत करने में व्यस्त रहता है, जिसका परिणाम वर्तमान में किंचित् सुखद हो सकता है किंतु वर्तमान और भविष्य दोनों ही उसके लिए दु:खद बनते हैं।
(क्रमश:)