आत्मा के आसपास

स्वाध्याय

आत्मा के आसपास

प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा

भगवान महावीर के बाद ध्यान की परंपरा

प्रश्‍न : भगवान महावीर या उनके उत्तरवर्ती आचार्यों ने जिस ध्यान-परंपरा को आगे बढ़ाया, उसके आधारभूत तत्त्व कौन-से हैं? क्या उनका कोई वर्गीकरण किया जा सकता है?
उत्तर : ध्यान साधना की परंपरा ने दो प्रकार की पद्धतियों को स्वीकार किया था। पहली पद्धति थीधर्म्य-ध्यान की। आचार्य भद्रबाहु इसी परंपरा के पुरस्कर्ता थे। धर्म्य-ध्यान की पद्धति एक वैज्ञानिक पद्धति है। इसमें तत्त्व को विश्‍लेषित करने की परंपरा है। तत्त्व-विश्‍लेषण सत्य की खोज से जुड़ा हुआ है। जो साधक जितना अधिक तत्त्व की खोज से जुड़ा हुआ है। जो साधक जितना अधिक तत्त्व की गहराई में पैठेगा, वह उतनी ही गहराई से ध्यान में प्रविष्ट हो सकता है। एक वैज्ञानिक को किसी नई खोज के लिए कितना परिश्रम करना पड़ता है। बिना परिश्रम और गहरी लगन के कोई नई खोज के लिए कितना परिश्रम करना पड़ता है। बिना परिश्रम और गहरी लगन के कोई व्यक्‍ति सही माने में वैज्ञानिक बन ही नहीं सकता। इसी प्रकार सत्य की शोध भी वही साधक कर सकता है, जो धर्म्य-ध्यान के माध्यम से तत्त्व की गहराई तक पहुँच जाता है।
ध्यान की दूसरी पद्धति थीशुक्लध्यान की। इस पद्धति से ध्यान करने वाले मानसिक स्थिति पर विजय पाने में सफल हो रहे थे, पर उनका तत्त्वज्ञान विकसित नहीं हो सका। ध्यान के चार भेदों में शुक्ल-ध्यान अंतिम ध्यान है। यह विशिष्ट प्रकार की पृष्ठभूमि पर ही घटित हो सकता है। वैसे इन चार भेदों में प्रथम दो भेदआर्त-ध्यान और रौद्र-ध्यान साधना की द‍ृष्टि से उपादेय नहीं हैं। क्योंकि इनसे साधना का विकास नहीं, ह्रास होता है। इन्हें ध्यान की कोटि में परिगणित करने का एकमात्र उद्देश्य यही रहा है कि आर्त और रौद्र परिणामों के द्वारा भी चित्त एकाग्र बनता है। सुख की भाँति दु:ख भी व्यक्‍ति को एक ही बिंदु पर चिंतन करने के लिए विवश कर देता है। वास्तव में इसका ध्यान-साधना से कोई संबंध नहीं है।
ध्यान-साधना के लिए तो दो ही मार्ग प्रशस्त थेधर्म्य-ध्यान और शुक्ल-ध्यान। एक मार्ग था सत्य की खोज का और दूसरा मार्ग थाकेवल साधना का। अपनी-अपनी रुचि और क्षमता के अनुसार इन दोनों पद्धतियों को काम में लिया गया। इन दो मूल ोतों के आधार पर नए-नए उपोत बनते गए और साधना करने वालों की नई-नई श्रेणियाँ बनती गई। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि भगवान महावीर द्वारा निरूपित और प्रयुक्‍त ध्यान की परंपरा अब भी अविच्छिन्‍न है। मध्य काल में उसमें यत्र-तत्र अवरोध उपस्थित हो गए थे। उन अवरोधों के बावजूद उनका नामशेष नहीं हुआ। उसी परंपरा के बीजों को अब पुन: विकसित करने की अपेक्षा है।

ध्यान-परंपरा का विच्छेद क्यों?

मध्यकाल में आ गया, जाने क्यों अवरोध?
असमय ही मुरझा गई, ध्यान-योग की पौध॥
पुन: पल्लवित वह हुई, पाकर साम्य-समीर।
सींचा जब उसको गया, निर्मल निष्ठा-नीर॥
मूल्यांकन फिर से हुआ, ध्यान-योग का स्वस्थ।
सश्रम क्रम खोजा गया, अब है मार्ग प्रशस्त॥

प्रश्‍न : जैन-शासन में ध्यान की एक महत्त्वपूर्ण परंपरा चल रही थी। उस परंपरा के जीवंत प्रतीक थेभगवान महावीर। उनके समय में सैकड़ों-सैकड़ों मुनि ध्यान के विशिष्ट साधक थे। उनके उत्तरवर्ती आचार्यों और मुनियों ने भी ध्यान की परंपरा को आगे बढ़ाया। ऐसी स्थिति में वह विशद परंपरा विच्छिन्‍न-सी क्यों हो गई? उसमें अवरोध क्यों आ गए?
उत्तर : ध्यान-परंपरा में अवरोध तो आया ही है अवरोध के कारणों को समझने से पहले यह तथ्य भी ज्ञातव्य है कि आज बहुत से जै लोग भी नहीं जानते कि उनकी परंपरा में ध्यान का कोई महत्त्व रहा है। इस तथ्य को समझे बिना अवरोध का प्रश्‍न ही नहीं उठ सकता। क्योंकि जो परंपरा मूल में हो ही नहीं, वह अवरुद्ध कैसे हो सकती है? इसलिए सबसे पहले यह पूर्वधारणा (भ्लचवजीलेपे) बननी चाहिए कि जैन-परंपरा में ध्यान की एक विशद पद्धति रही है। इसके बाद उसमें उपस्थित अवरोधों के संबंध में विमर्श करना है।
(क्रमश:)