स्वतंत्रता अच्छी हो सकती है स्वच्छंदता अच्छी नहीं होती है: आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

स्वतंत्रता अच्छी हो सकती है स्वच्छंदता अच्छी नहीं होती है: आचार्यश्री महाश्रमण

लूणकरणसर, 24 मई, 2022
साधना के श्लाका पुरुष आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि दया, करुणा, अनुकंपा यह एक ऐसा तत्त्व है, जो आदमी की चेतना को अच्छा रखता है। अनुकंपाशील आदमी अनेक पापों से बच सकता है। अहिंसा की साधना के लिए दया का भाव सहायक तत्त्व होता है कि मेरी ओर से किसी की हिंसा न हो जाए। मेरी ओर से किसी को कष्ट न पड़े। आदमी में दयाहीनता होती है, तब वह दूसरों को कष्ट देने का इरादतन प्रयास करता है। दया की चेतना है, तो वह फिर किसी को कष्ट नहीं देता है। साधु तो दया मूर्ति होना चाहिए। साधु के पाँच महाव्रतों में पहला महाव्रत हैµ सर्वप्राणातिपात विरमण। यह मुनि मेतार्य के जीवन प्रसंग से समझाया कि सावद्य सत्य भी नहीं बोलना चाहिए।
साधु तो अहिंसा मूर्ति, अहिंसा का पुजारी होना चाहिए। जो साधु मन, वचन, काया से किसी को दुःख नहीं देते ऐसे साधु का मुख-दर्शन करने से दर्शनकर्ता का पाप झड़ जाता है। साधु की तो अहिंसा-दया ही उसका धन है। भारत का मानो भाग्य है कि यह संतों की धरती भी रही है। आचार्य तुलसी ने अणुव्रत और आचार्य महाप्रज्ञजी ने प्रेक्षाध्यान की बात बताई है और भी अनेक संत अतीत में हुए हैं और वर्तमान में भी हैं। गृहस्थों में भी दया की भावना देखने को मिल सकती है। यह भी एक प्रसंग से समझाया कि राज्य के विस्तार के लिए हिंसा का सहारा नहीं लेना चाहिए। युद्ध की बजाय शुद्ध कार्य में शक्ति का नियोजन करना चाहिए। अहिंसा परमधर्म है। अहिंसा एक ऐसी नीति है, जो सुख-शांति देने वाली है।
राजनीति हो या विदेश नीति, राष्ट्र नीति हो या समाज नीति, नीति में अहिंसा का प्रभाव रहना चाहिए। वो नीति सुनीति हो सकती है, जिस नीति के भीतर अहिंसा आत्मा के रूप में विराजमान हो। लोकतंत्र में समानता की बात है। न्यायपालिका में न्याय की बात सबके लिए समान है। स्वतंत्रता तो ठीक हो सकती है, पर स्वच्छंदता ठीक नहीं है। अनुशासन तो सब जगह उपयोगी होता है। यह भी एक प्रसंग से समझाया कि आजादी अपनी सीमा में ही ठीक है। अहिंसा, दया, अनुकंपा, मानव को एक अच्छा मानव बनाए रखने वाला तत्त्व है। यह निरवद्य दया तो और भी उत्तम है। पाप आचरणों से स्वयं को बचाएँ। दया-अनुकंपा को हम हमारे जीवन के साथ रखने का प्रयास करें, यह काम्य है। साध्वीप्रमुखाजी ने कहा कि पूज्यप्रवर जहाँ कहीं पधारते हैं, अनेक-अनेक लोग पूज्यप्रवर की उपासना में पधारते हैं। गाँवों में तो छत्तीस कोम के लोग प्रवचन सुनने आते हैं। गुरुदेव के प्रति लोगों का आकर्षण है। गुरु के द्वारा ही ज्ञान प्राप्त हो सकता है।
मुख्यमुनिश्री ने कहा कि जो गुरु लज्जा, दया, संयम और ब्रह्मचर्य की शिक्षाएँ देते हैं, जो शिक्षाएँ कल्याण के इच्छुक व्यक्ति के लिए शुद्धि के स्थान हैं, ऐसे गुरु की मैं सतत पूजा करता हूँ, प्रणाम करता हूँ। ये चार गुण गुरु से ही प्राप्त हो सकते हैं। ये विशिष्ट गुण हैं। पूज्यप्रवर ने फरमाया कि कल लूणकरणसर आना हुआ है। कल दिन में भी रात जैसी हो गई थी। साध्वी पानकुमारीजी जो दसवें दशक में हैं, उनसे मिलना हुआ। उनके सद्गुण पुष्ट रहें। साथ ही साध्वियाँ भी खूब अच्छा काम करती रहें। सब कुछ अच्छा चलता रहे। साध्वी पानकुमारीजी के सिंघाड़े से साध्वी मंगलयशाजी ने अपनी प्रसन्नता के भाव पूज्य चरणों में अभिव्यक्त किए। पूज्यप्रवर की अभिवंदना में साध्वियों ने गीत की प्रस्तुति भी दी।