गृहस्थों के विचार और व्यवहार में अहिंसा की प्रधानता रहे : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

गृहस्थों के विचार और व्यवहार में अहिंसा की प्रधानता रहे : आचार्यश्री महाश्रमण

माधोपुर (भीलवाड़ा बाहर), 16 जुलाई, 2021
महायायावर आचार्यश्री महाश्रमण जी आज प्रात: माधोपुर पधारे। अमृत देषना प्रदान करते हुए परम पावन ने फरमाया कि हिंसा और अहिंसा ये दो शब्द धार्मिक-साधना में चर्चित होते हैं। हिंसा का अभाव अहिंसा है।
शास्त्रकार ने कहा है कि ज्ञानी आदमी के ज्ञान का सार यह है कि वह किसी की हिंसा नहीं करता। जिसने अहिंसा धर्म व समता को जान लिया और जीवन में आचरित हो जाता है, इसका वह मतलब अध्यात्म-जीवन में आचरित हो जाता है।
अहिंसा को परम धर्म कहा है। हिंसा नहीं करनी चाहिए कारण सबको जीवन प्रिय है, तो मैं दूसरों की प्रिय चीज को नष्ट क्यों करूँ। सब जीव जीना चाहते हैं, कोई मरना नहीं चाहता। यह अहिंसा के द‍ृष्टिकोण पर संबंधित है। दूसरा द‍ृष्टिकोण है कि हिंसा के साथ राग-द्वेष का भाव जुड़ा है, उससे मेरी आत्मा का अहित होता है। आत्मा का पतन होता है, आत्मा अधोगामिनी बन जाती है। संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है। यह दूसरा द‍ृष्टिकोण आत्म-संबंध हो सकता है।
आचार्य भिक्षु ने कहा है
जीव जीवे ते दया नहीं, मरे तो हिंसा मत जाण।
मारण वाले ने हिंसा कही, नहीं मारे हो ते दया गुण खाण॥
अहिंसा और हिंसा का मूल संबंध अपनी आत्मा के भावों के साथ है। निश्‍चयनय में आत्मा ही अहिंसा और हिंसा है। जो प्रमत्त रहता है, वो हिंसक है, अप्रमत्त अहिंसक है।
बाहर से हिंसा होना एक बात है, पर अपने भीतर से हिंसा होना अलग बात है। इसलिए द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है। द्रव्य हिंसा होने पर भी हिंसा के पाप कर्म का बंधन नहीं होता। उस समय तो केवली के पुण्य का बंध हो जाता है। कारण वह अप्रमत्त और वीतराग है। राग-द्वेष नहीं है। भाव हिंसा से भले हिंसा न हो पर भाव में हिंसा आ गई तो पाप कर्म का बंधन हो जाता है।
हमारे विचारों में, शरीर, वाणी मन में अहिंसा के भाव रहे। हम लोग अभी अहिंसा-यात्रा कर रहे हैं। इसके तीन सूत्र हैंसद्भावना, नैतिकता और नशामुक्‍ति। ये तीन सूत्र अहिंसा और संयम की चेतना को मानो पुष्ट करने वाले तत्त्व हैं।
गृहस्थों के विचार और व्यवहार में भी अहिंसा की प्रधानता रहे। ‘सादा जीवन, उच्च विचार, मानव जीवन का शृंगार’। अपनी ओर से किसी को तकलीफ नहीं देने की भावना हो।
सूत्र हैसब प्राणियों को अपने समान समझो। जो व्यवहार मेरे लिए प्रतिकूल है, मैं वो व्यवहार दूसरों के साथ भी न करूँ। हिंसा की वृत्ति भीतर में है। दो शब्द हैंवृत्ति और प्रवृत्ति। प्रवृत्ति की पृष्ठभूमि में कारण के रूप में वृत्ति होती है। प्रवृत्ति एक कार्य है और वृत्ति उसका कारण है।
हिंसा पहले मन के स्तर पर होती है, फिर युद्ध के रूप में आ जाती है। हिंसा के पीछे आदमी के राग-द्वेष के भाव हैं। हिंसा एक परिणाम है, राग-द्वेष का भाव उसका कारण है। कारण जितना कमजोर पड़ेगा-हिंसा भी अपने आप प्रतनु हो सकेगी। शांति के लिए अहिंसा की बड़ी भूमिका होती है। हिंसा दु:खों की जननी है। अहिंसा के लिए अनुकंपा, अभय की चेतना जागृत है। पर कल्याण की भावना हो। परिग्रह भी हिंसा का कारण है। न्याय के प्रति सम्मान हो। आदमी को अहिंसा के मार्ग पर चलने का प्रयास करना चाहिए।
आज हमारी कई साध्वियों से बरसों के बाद मिलना हुआ है। साध्वी चाँदकुमारी जी ‘लाडनूं’ व साथ की साध्वियों से वर्षों बाद मिलना हुआ। साध्वी साधनाश्री जी से तो मानो पहली बार मिलना हुआ है। साध्वी मधुबाला जी के सिंघाड़े से भी बरसों बाद मिलना हुआ है। साध्वी कमलप्रभा जी से मिलना हुआ ही नहीं। उनकी सहवर्ती साध्वी ललितकला जी आदि साध्वियाँ आई हैं। भीलवाड़ा आकर भी उनसे मिलना नहीं हुआ। जयपुर से आई साध्वी प्रसन्‍नप्रभा जी और साध्वी माधुर्यप्रभा जी का आज यहाँ आना हो गया।
पूज्यप्रवर की अभिवंदना में साध्वी साधनाश्री जी के सिंघाड़े ने, साध्वी मधुबाला जी के सिंघाड़े ने भावों की अभिव्यक्‍ति दी। साध्वी ललितकला जी जो साध्वी कमलप्रभा जी की सहवर्ती हैं, ने साध्वी कमलप्रभा जी के अंतिम समय के घटना प्रसंग को विस्तार से बताया एवं गीत से अभिव्यक्‍ति दी। साध्वी प्रसन्‍नप्रभा जी ने भी अपने भावों की अभिव्यक्‍ति दी। मुनि जितेंद्र कुमार जी ने साध्वी कमलप्रभा जी के प्रति श्रद्धा व्यक्‍त की।
पूज्यप्रवर का प्रवास आज जी-स्कूल के संस्थान में हो रहा है। यहाँ के पवन अग्रवाल, यहाँ की प्रििंसपल रत्ना सुराणा ने अपने भावों की पूज्यप्रवर के स्वागत में व्यक्‍त की।
कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने बताया कि हम साधना के द्वारा सिद्धि की यात्रा करते जाएँ।