हमारे जीवन से संत संगति का विशिष्ट महत्त्व है : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

हमारे जीवन से संत संगति का विशिष्ट महत्त्व है : आचार्यश्री महाश्रमण

हमीरगढ़, 15 जुलाई, 2021
तेरापंथ के एकादशम अधिशास्ता आचार्यश्री महाश्रमण जी आज प्रात: विहार कर हमीरगढ़ पधारे। मंगल प्रेरणा प्रदान करते हुए परम पावन ने फरमाया कि हमारी दुनिया में साधु हर समय विद्यमान रहते हैं। मानो कि दुनिया का बड़ा सौभाग्य है, कोई भी समय ऐसा नहीं होता जब संपूर्ण अढ़ाई द्वीप में कहीं कोई साधु न हो।
इससे बड़ी बात है कि हमेशा केवलज्ञानी विद्यमान रहते हैं और इसमें भी विशेष बात यह हो सकती है कि दुनिया में कम-से-कम बीस तीर्थंकर सदा विद्यमान रहते हैं। ज्यादा से ज्यादा तो युगपत 170 तीर्थंकर एक साथ एक समय में दुनिया में विद्यमान हो सकते हैं। मानो कि धरती इसीलिए टिकी होगी कि तीर्थंकर-संत पुरुष दुनिया में हमेशा विद्यमान रहते हैं।
तीर्थंकर तो महाप्रवचनकार होते हैं। उनसे बड़ा दुनिया में कोई अध्यात्म का प्रवचनकार मिलना मुझे तो बड़ा मुश्किल लगता है। अध्यात्म के अधिकृत प्रवक्‍ता-पुरुष तीर्थंकर होते हैं। भरत-एरावत क्षेत्र में प्रत्येक अवसर्पिणी और प्रत्येक उत्सर्पिणी काल में 24-24 तीर्थंकर होते हैं।
भगवान महावीर वर्तमान अवसर्पिणी के भरत क्षेत्र के अंतिम तीर्थंकर हुए थे। महाविदेह में तो हमेशा तीर्थंकर रहते हैं, पर भरत और एरावत में हमेशा तीर्थंकर नहीं होते। समय पर तीर्थंकर होते हैं। बाकी समय खाली भी रहता है।
तीर्थंकरों के प्रवचन सुनने का मौका मिले, कितनी अच्छी बात हो सकती है। तीर्थंकर न भी मिले, आचार्य मिले तो उनका प्रवचन भी अच्छी बात है। साधुओं का व्याख्यान सुनो वो भी कल्याणकारी हो सकता है। साधुओं के तो दर्शन मिलने भी बहुत अच्छी बात है। साधु तो तीर्थ के समान होते हैं। चलते-फिरते तीर्थ होते हैं।
संतों के दर्शन मिलना तीनों कालों से संबंधित बात है। वर्तमान में तुम साधु के भक्‍ति से दर्शन करोगे, तो कर्म निर्जरा होगी। भविष्य के शुभ का हेतु है। कारण निर्जरा से पुण्य का बंध होगा। पहले अतीत में कोई ऐसा सत्कर्म किया होगा तब तुमको साधुओं के दर्शन का योग मिला। उनकी वाणी सुनने का मौका मिल जाए तो फिर कहना ही क्या?
साधु की पर्युपासना करने से 10 लाभ हो सकते हैंकुछ सुनने को मिल सकता है। सुनने से ज्ञान मिलता है, ज्ञान प्रकाश है। ज्ञान से विज्ञान होगा। हेय, उपादेय का विवेक होगा। हेय-उपादेय को जानने से प्रत्याख्यान कर सकता है। प्रत्याख्यान से संयम हो जाएगा, संयम से अलाश्रव-संवर हो जाएगा। कर्म बंध रुक जाएगा। सम्यक्त्व संवर से तप हो जाएगा। तप से कर्म निर्जरा होगी। आगे चलते-चलते अक्रिया होगी और अंतिम सिद्धि प्राप्त हो सकती है। मोक्ष की प्राप्ति हो जाएगी। इन सबकी जड़ हैसाधु की पर्युपासना।
साधुओं की संगति का इतना महत्त्व है कि वो कहाँ से कहाँ ले जा सकती है, कितना ऊँचा उठा सकती है। साधु बनने की भावना आ सकती है। हमारे जीवन में संत-संगति का बड़ा महत्त्व है। उनसे कई बातें ग्रहण की जा सकती हैं।
बहु रत्ना वसुंधरा। धरती पर रत्न बहुत हैं, उन्हें कोई खोजने वाला चाहिए। अच्छों से कुछ अच्छी बात लेने का प्रयास करें। गृहस्थ लोग हैं, वे भी किसकी संगति में रहते हैं? अच्छों के साथ रहेंगे तो अच्छाइयाँ ग्रहण हो सकती हैं। भाषा शिष्ट-शालीन हो।
भाषा शिष्ट और मिष्ट हो तो भाषा विशिष्ट हो जाती है। यह एक प्रसंग से समझाया कि जैसी भाषा होगी वैसा सम्मान मिलेगा। सत्संगत से भाषा अच्छी हो सकती है। बड़ों से बड़ी-बड़ी बातें सीख लें तो हमारा जीवन भी बड़ा बन सकता है।
आज साध्वी सुनंदाश्री जी, साध्वी वंदनाश्री जी के दीक्षा पर्याय के 25 वर्ष पूरे हो रहे हैं। दोनों साध्वियों ने अपने भावों की अभिव्यक्‍ति पूज्यप्रवर के चरणों में अर्पित की।
साध्वीप्रमुखाश्री जी ने आशीर्वचन में कहा कि मुनि जम्बूकुमार जी, साध्वी सुनंदाश्री जी और साध्वी वंदनाश्री जी की दीक्षा साथ-साथ हुई थी। मनुष्य जन्म, जैन धर्म और भैक्षव शासन ये त्रिवेणी संगम हैं। जो इनको प्राप्त हुआ है। हमारे आचार्य दूरदर्शी होते हैं। दोनों साध्वियों के प्रारंभ के जीवन प्रसंग बताए।
पूज्यप्रवर ने मंगल आशीर्वचन में फरमाया कि हमारे जीवन में अनेक दिशाओं में अनेक उपलब्धियाँ हो सकती हैं। विद्वता, वकतृत्व, कवित्व के क्षेत्र में विकास हो सकता है। दूरदर्शिता भी रहस्यमय चीज भी हो सकती है। ज्ञान का विकास व्यवहार में स्थूल रूप में होता है पर सूक्ष्म रूप में प्रकट में दिखाई नहीं देता है। दोनों साध्वियाँ 25 वर्ष पूर्व दीक्षित हुई थीं। गुरुओं से जो मिलता है, वो जीवन की एक निधि हो जाती है। हमारे धर्मसंघ में कई-कई साधु-साध्वियों ने अच्छा विकास किया है।
गुरुओं की शिक्षा गाँठ बाँधने वाली हो जाती है। दीक्षा देना एक बात है। बाद में उसके जीवन का विकास करने पर ध्यान देना महत्त्वपूर्ण बात है। जन्म देना एक बात है, निष्पन्‍न करना एक बात है। समय-समय पर गुरुओं की जो प्रेरणाएँ मिलती हैं, वो जिंदगी के पथ को बड़ा ठीक बनाने वाला बन सकता है।
गुरु प्रशंसा मेरी भले ना करे पर मेरी गलतियाँ निकालते रहें। कमियाँ निकालते रहें, दिशा निर्देश मिलता रहे। प्रशंसा होने का भी कुछ महत्त्व हो सकता है, पर शिष्य के मन में यह रहे कि मुझे प्रशंसा नहीं मुझे तो शिक्षा चाहिए। प्रशंसा का महत्त्व नहीं है। महत्त्व है, मेरे जीवन में कितनी परिपक्वता-ठोसता वो कितनी आ रही है।
हमारा लक्ष्य बन जाए कि चारित्र के मेरे पर्यव है, वो मेरे किस प्रकार के हैं। निर्मलता कैसी है, मलीनता तो नहीं आई, आई है तो आगे ध्यान दूँ। संयम-रत्न के सामने भौतिक चीजें फीकी हैं, छोटी हैं। संयम रत्न महत्त्वपूर्ण निधि है, कोई लुटेरा इसको ले न जाए। मोहनीय कर्म लुटेरा है। संयम जीवन छूटे नहीं।
आगम का स्वाध्याय करते रहो। यह संयम को सींचन देने वाला है। स्वाध्याय से निर्मलता रह सकती है। 25 वर्षों में 32 आगम मैंने पढ़े कि नहीं यह देखें। अगर नहीं पढ़े बच गए हैं तो उनको पूरा कर लूँ। आगे 25 वर्षों में आगम बत्तीसी का मूल पाठ अनुवाद का पारायण हो जाए। तो संयम जीवन और पुष्ट हो सकता है।
चारित्रात्माओं में और भी योग्यताएँ हैं, यह सोने में सुहागा है और जो विशेषताएँ हैं, उनका भी और विकास हो। हमारे धर्मसंघ में तीन-तीन संतानों को धर्मसंघ में देने वाले महादानी भी कई हैं। हमारी मंगलकामना है। सभी अपनी प्रतिभा का बढ़िया उपयोग करते रहें। संयम तो है, प्राणभूतता भी आ जाए।
पूज्यप्रवर के स्वागत में हमीरगढ़ की सरपंच रेखा परिहार ने अपने भावों की अभिव्यक्‍ति दी।