यात्रा - गुलाब से गुणमाला

यात्रा - गुलाब से गुणमाला

शासनश्री साध्वी गुणमाला जी के देवलोकगमन के उपलक्ष्य में

साध्वी लक्ष्यप्रभा
शक्ति और भक्ति-शौर्य और वीरता के रंग से रंगी उदयपुर की माटी में जन्म लेने वाली बालिका गुलाब का बचपन तलेसरा परिवार में बीता। तलेसरा परिवार मंदिरमार्गी में अग्रणी था। माँ पेफांबाई पीहर से तेरापंथी थी। नियति के योग से बालिका गुलाब तेरापंथ के प्रति आकर्षित हो गई। धीरे-धीरे वैराग्य की भावना जगी। मंदिरमार्गी परिवार की बेटी तेरापंथ में दीक्षा लेना चाहे तो विरोध होना स्वाभाविक था, पर गुलाब काँटों के बीच खिलना जानती थी। हर विरोध को मंजिल का पायदान बनाकर चलती रही। पारमार्थिक शिक्षण संस्था में शिक्षण-प्रशिक्षण प्राप्त कर वि0सं0 2015 को गुरुदेव श्री तुलसी के मुखार्विंद से दीक्षा का आदेश लेकर घर गई। पूरा परिवार उत्साह के साथ वैरागण गुलाब की दीक्षा की तैयारी में जुट गया। उदयपुर से कानपुर रवाना होने से स्थानीय तेरापंथ समाज की ओर से बंदोली निकलनी थी। उस समय इतर तेरापंथी कुछ लोगों ने विरोध की मानसिकता से जुलूस के रास्ते में काँच के टुकड़े बिछा दिए। स्थानीय सभा बिना प्रतिक्रिया काँच के टुकड़ों को हटाकर सानंद जुलूस निकाला। आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा के दिन आचार्य तुलसी के करकमलों से दीक्षित होकर मुमुक्षु गुलाब साध्वी गुणमाला बन गई। उस समय उनके संसारपक्षीय पिताजी (पूनमचंद तलेसरा) ने गुरुदेव को निवेदन किया-हम मंदिरमार्गी परिवार से हैं। गुलाब की इच्छा के कारण आपके चरणों में सौंप दिया। आप इसका पूरा ध्यान रखना। गुरुदेव ने उन्हें बहुत आश्वस्त किया।
साध्वी गुणमाला का साध्वी जीवन का बचपन शासन गौरव साध्वी किस्तूरांजी के सान्निध्य में बीता। लगभग 35 वर्षों तक उनके संरक्षण में साधना-अध्ययन प्रशिक्षण पाया। सुदूर प्रदेशों की लंबी यात्राएँ की। पूरी कर्मठता के साथ शासन गौरव साध्वी किस्तूरांजी की सहवर्ती बनकर काम करती रही। वे स्वयं कई बार बताती थीं कि मेरे आगेवान की प्रेरणा से मैंने सैकड़ों गीतिकाएँ, सैकड़ों संस्कृत श्लोक, कई नाटक-व्याख्यान-मुक्तक आदि की रचना की। गुरुदेव की कृपा एवं उनकी प्रेरणा से ही मैं कुछ सीख पाई हूँ। शारीरिक श्रम भी बड़े चाव से किया करती थी। तपस्या का अच्छा क्षयोपशम था। दो मासखमण, 15 तक की लड़ी, प्रतिवर्ष दो तेला-महीने में चार उपवास-एकासन, आयंबिल आदि अनेक छोटी-बड़ी तपस्याएँ की।
2001 तारानगर मर्यादा महोत्सव पर आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी ने उन्हें अग्रगण्य बना दिया। उसके बाद आपकी महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, मारवाड़, मेवाड़, थली आदि क्षेत्रों की यात्राएँ की। आपकी व्यवहारकुशलता जन-संपर्क एवं सार-संभाल के कार्य को मधुर बना देती। आपकी वक्तव्य शैली जनसमूह को बाँधे रखती। सैकड़ों लोगों को गुरुधारणा एवं 12 व्रत स्वीकार करवाए। 22 वर्ष तक अग्रगण्य पद के दायित्व को कुशलता के साथ निभाती रही। सहवर्ती साध्वियों में भी संघनिष्ठा, गुरुनिष्ठा के संस्कार भरती रही।
अंतिम वर्षों में अनेक बीमारियों ने उन्हें घेर लिया। स्वयं बहुत सचेत थी। पथ्य-परहेज दवाई लेने आदि कार्यों के लिए दूसरों पर निर्भर नहीं थी। कभी साध्वियों द्वारा मनुहार होने पर कहती-खाकर वेदना को बढ़ाने की अपेक्षा तो नहीं खाना ज्यादा अच्छा है। लगभग महीने में 25 दिन 5 विगय का वर्जन करती। अंतिम दिनों दवाइयाँ एवं बीमारी की वजह से भयंकर प्यास का परिषह रहा। डॉक्टर के परामर्शानुसार एक लीटर से ज्यादा पानी नहीं पीना था। गर्मी का मौसम। जीभ सूखकर लकड़ी के टुकड़े की तरह रुखी हो जाती। जब रात को प्यास सताती तो बड़े समभाव से सहन करती। अर्ध चेतना अवस्था में भी कभी रात को पानी नहीं माँगा। 5 अप्रैल को गुरुदेव की अनुमति पूरी सजगता के साथ सागारी संथारा का प्रत्याख्यान करवाया। उसके बाद धीरे-धीरे निश्चेष्ट होती गई। ऐसा लग रहा था शायद अब इन्हें यावत्जीवन संथारा नहीं करा सकेंगे। परंतु 6 अप्रैल को प्रतिक्रमण के दौरान उन्हे सजग, सचेत करने का प्रयास किया। उनसे कहा-यदि आप संथारा करना चाहते हैं तो वेदना को मत देखिए, पूरी शक्ति लगाकर, आँख खोलकर स्वीकृति दे तो हम संथारा करा देंगे। कुछ मिनटों के प्रयास के बाद पूरी जागरूकता के साथ आँखें खोली। पूछने पर हल्की सी गर्दन, होट हिलाकर स्वीकृति दी। स्थिति नाजुक देखते हुए प्रतिक्रमण के बीच संथारा का प्रत्याख्यान करवाया, खमतखामना किए, सरणे सुनाए। श्वास की गति बदली और अहोभाव के ग्यारह मिनट के संथारे के साथ देह को त्याग दिया। उनका 63 वर्ष का संयम पर्याय समता, सहिष्णुता एवं आत्मबल के साथ स्वीकृत संथारे के कारण और अधिक धन्य बन गया।

उस निर्मल आत्मा के प्रति अनंत श्रद्धांजलियाँ