युगप्रधान - आचार्यश्री महाश्रमण

युगप्रधान - आचार्यश्री महाश्रमण

आचार्यश्री महाश्रमण जी को युगप्रधान अलंकरण के उपलक्ष्य में 

युग प्रधान शब्द के सामान्य अर्थ में ‘युग’ शब्द समय का वाचक है और ‘प्रधान’ शब्द ‘मुख्यता’ का वाचक है। यह शब्द मुख्यतया प्रभावशाली जैनाचार्यों के नाम के पहले प्रयुक्त किया जाता है, वह भी कब जब उन्हें शासन प्रभावना के किसी कार्य विशेष के निष्पादित हो जाने की स्थिति में चतुर्विध धर्मसंघ द्वारा अलंकृत, अभिषिक्त कर ‘युगप्रधान’ के रूप में प्रतिष्ठित किया जाता हो। वैसे तो यह महान आचार्यों द्वारा समाज देश दुनिया के हितार्थ किये गए कार्यों के प्रति उनके कर्तृत्व के प्रति कृतज्ञता की अभिव्यक्ति का संसूचक है। गुरु के महान उपकार का शिष्यों पर, समाज पर ऋण रहता है। इस ऋण को चुकाया नहीं जा सकता किंतु अभ्यर्थना, स्तवना, गुणोत्कीर्तना के माध्यम से उपकारी के प्रति अहोभाव प्रकट कर कुछ आत्मतोष तो प्राप्त किया ही जा सकता है। उसी आत्मतोष की प्राप्ति का ही एक उपक्रम है-युगप्रधान सम्मान। वस्तुतः महापुरुषों को कोई सम्मान की आकांक्षा नहीं होती है वे तो इन सम्मानों, रीति - रश्मों से ऊपर उठे हुए होते हैं किंतु वे धर्मसंघ के आत्मतोष के लिए उनके द्वारा प्रदत्त सम्मान को ससम्मान ग्रहण कर अपने दायित्व के प्रति और अधिक सजग बन जाते हैैं।

गौरवशाली परंपरा

जैन इतिहास युगप्रधान आचार्यों की गौरवशाली परंपरा से समृद्ध रहा है। अनेक जैनाचार्यों ने अपने व्यक्तित्व, कर्तृत्व, नेतृत्व व अपनी विविध असाधारण क्षमताओं के माध्यम से तत्कालीन समय में जिनशासन की अपूर्व प्रभावना कर महान सेवा की। जिसके फलस्वरूप युग ने उन्हें युगप्रधान के गौरव भरे अभिधान से अभिहित किया। उन्हीं युगप्रधान आचार्यों की स्वर्ण श्रृंखला की कुछ सुनहरी कड़िया हैं-
(1) आचार्य भद्रबाहु - आगम वाचना देकर चौदह पूर्वों की विशाल ज्ञान राशि की विशिष्ट श्रुत परंपरा को आगे बढ़ाया।
(2) आचार्य शय्यंभव - दशवैकालिक सूत्र की रचना के साथ ही यज्ञनिष्ठ ब्राह्मणों को यज्ञ का आध्यात्मिक रूप समझाकर उन्हें श्रमण धर्म के अनुकूल बनाया।
(3) आचार्य यशोभद्र - याज्ञिकी हिंसा में अनुरक्त क्रियाकाण्डी ब्राह्मणों को अहिंसा और अध्यात्म की और उन्मुख किया।
(4) आचार्य सुहस्ति - मौर्य सम्राट सम्प्रति के माध्यम से जैन धर्म का चारों दिशाओं में अतिशय प्रसार किया।
(5) आचार्य श्याम - प्रज्ञापना ग्रंथ की रचना कर संघ को तत्वबोध से समृद्ध किया। इस ग्रंथ को उपांग आगम के रूप में मान्यता प्राप्त है।
(6) देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण - विलुप्त होती ज्ञान राशि को वाचना के माध्यम से व्यवस्थित कर श्रुत लेखन का अद्वितीय प्रयास कर श्रुत संरक्षण का महान कार्य किया।
(7) आचार्य सिद्धसेन - सूक्ष्म चिन्तन शैली एवं जागृत प्रज्ञा से ‘न्यायावतार’ जैसे अनेक दर्शन ग्रंथों का प्रणयन कर जैन शासन को सुदृढ दार्शनिक आधार प्रदान किया।
(8) आचार्य समन्तभद्र - प्रमाण ग्रंथ आप्त मीमांसा की रचना कर तार्किक क्षेत्र में प्रखर तर्कणाओं के माध्यम से युग को तत्त्व समझाने की नवीन दृष्टि प्रदान की।
इसी प्रकार आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय) ने निर्युक्ति, जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने भाष्य साहित्य, जिनदास महत्तर ने चूर्णि साहित्य की रचना कर ज्ञान भंडार को समृद्ध किया। नवांगी टीकाकार अभयदेव सूरि, आचार्य हेमचंद्र, आचार्य हरिभद्र, आचार्य आर्यरक्षित, आचार्य जिनदत्त सूरि, आचार्य जिनचन्द्रसूरी आदि अनेक आचार्यों ने अपने दिव्य ज्ञान, व असाधारण प्रतिभा से अनेक विषयों में अपनी अद्भुत मेधा का परिचय देकर जैनशासन की विलक्षण प्रभावना की वे युगबोधक युगप्रधान आचार्य कहलाए।

तेरापंथ और युगप्रधान

तेरापंथ की पुनीत आचार्य पट्टावली में संघ संस्थापक क्रांतिकारी प्रथम आचार्य आचार्य भिक्षु हुए हैं। चतुर्थ आचार्य जयाचार्य धर्मसंघ की आन्तरिक व्यवस्था परिवर्तन क्रांति के सूत्रधार थे। उन्होंने तेरापंथ धर्मसंघ को भगवान महावीर की आचार पद्धति में ढा़लते हुए अनेक युगान्त कारी परिवर्तन किये। उनकी अद्भुत मेधाने युगप्रधान की साक्षात अनुभूति धर्म संघ को करवाई थी। बीसवीं शताब्दी में तेरापंथ के नवमें आचार्य आचार्य श्री तुलसी व आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी युगप्रधान अलंकरणों से अलंकृत हुए।
आचार्य तुलसी व आचार्य महाप्रज्ञ की युगल जोड़ी ने युग की नब्ज को परखकर धर्मसंघ के आन्तरिक विकास को अभिनव आकाश प्रदान किया तो अणुव्रत आंदोलन, जीवन विज्ञान, प्रेक्षाध्यान, अहिंसा समवाय, नया मोड़, रूढ़ि उन्मूलन, नारी जागरण, आगम संपादन, साहित्य सृजन, अणुव्रत यात्रा, अहिंसा यात्रा आदि जनकल्याणकारी कार्यों से संघ, समाज, देश व दुनियाँ का अभिनव पथदर्शन किया। उनके मानव हित में किये गए कार्यों की बदौलत धर्मसंघ ने उन्हें युगप्रधान के रूप में अभिषिक्त किया।

युगप्रधानः आचार्य श्री महाश्रमण

युगप्रधान की अनेक कसौटियां हो सकती हैं। मैंने आचार्य श्री महाश्रमण जी को अनेक दृष्टिकोणों से देखने का प्रयास किया। पर वे हर दृष्टिकोण में युगप्रधान ही दिखाई दिए। जिस प्रकार लड्डु को कहीं से भी चखने पर वह मीठा ही लगता है उसी प्रकार आचार्य श्री के जीवन की पुस्तक कहीं से भी पढ़ने पर वह ज्ञानवर्धक व प्रेरक ही लगती है। आचार्य श्री महाश्रमण अगणित विशेषताओं के पुंज हैं। जिस प्रकार लक्षपाक तैल एक लाख औषधियों के सम्मिश्रण से तैयार होता है उसी प्रकार अगणित विशेषताओं के समवाय से आचार्य प्रवर का व्यक्तित्व निर्मित हुआ है। उनके व्यक्तित्व के परिचय मात्र के लिए कुछ गुणात्मक बिंदुओं का स्पर्श करना पसंद करूँगा। यथा - ज्ञान के हिमालय- आचार्य प्रवर का ज्ञान गहरा व गंभीर है। उनकी धारणा शक्ति प्रखर है। उनके प्रवचनों में आगम ज्ञान की गहराई सहज, सरल शब्दों में प्रकट होती है। उनका ज्ञान स्थिरता लिए हुए है। उनकी अन्तःप्रज्ञा जागृत है उनके ज्ञान को देख कर लगता है कि वे ज्ञान के हिमालय हैं। 

दर्शन के दृढस्तंभ - वे आचार्य से पहले एक जैन मुनि है। उनकी जैनागम, जैन धर्म, जैन आराध्य के प्रति सुदृढ आस्था है। उनकी सम्यकत्व विशुद्धि को देखते हुए महसूस होता है कि वे दर्शन के दृढ़स्तंभ है।

चारित्र के चूड़ामणि

चारित्र साधु का असली धन होता है। उसका संरक्षण व संवर्धन करने वाला विशिष्ट होता है। आचार्यप्रवर निर्मल, अनुत्तर चारित्र के धारक हैं। उनका पवित्र व निष्कलंक चारित्र उन्हें चारित्र के चूड़ामणि उद्घोषित करता है।
तप के तीर्थयात्री - तीर्थ वह होता है जहाँ लोग स्नान कर अपने पाप को धो डालने का प्रयत्न करते हैं। आचार्य प्रवर संघ सेवा रूपी महान तप कर रहे हैं।
आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने उन्हें महातपस्वी के सार्थक संबोधन से संबोधित किया। वे नित्य, प्रतिदिन, प्रतिपल तपोयज्ञ कर रहे हैं। इसलिए वे तप के तीर्थ यात्री बने हुए हैं।
शांति के देवता - तनाव भरे इस युग में हर वर्ग शांति की खोज कर रहा है। आचार्य प्रवर शांति का जीवन जीना पसंद करते हैं। वे स्वयं शांति का जीवन जीते हैं और दूसरे लोगो को भी शांति की राह दिखलाते हैं। उनके चेहरे की मन्द मुस्कान व आभा अशान्त व्यक्ति को भी शान्त बना देती है। जब - जब भी मधुर मुस्कान के साथ उन्हें देखता हूँ तो आभास होता है कि वे शांति के देवता है। मानवता के मसीहा - पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस के बढ़ते दामों की तरह मानव तो दिन-दिन बढ़ते जा रहे हैं किंतु विलुप्त होती पक्षियों की प्रजातियों की तरह मानवता दिन दिन घटती जा रही है। जिस प्रकार घुसपैठियों की रोकथाम के लिए सीमा पर सेना डटी हुई है उसी प्रकार घटती मानवता की रोकथाम के लिए आचार्यप्रवर जन-जन को जगाने जागरुक प्रहरी बने हुए हैं। उन्होंने मानवता के प्रश्न को सामने रखकर अहिंसा यात्रा की।गाँव-गाँव, नगर नगर, डगर-डगर घूम-घूम कर जनता को सद्भावना ,नैतिकता व नशामुक्ति का संदेश प्रदान कर सोई मानवता को फिर से जगाने के लिए प्राण फूंकने का कार्य किया है। वे मानव मात्र का हित व उत्थान चाहते हैं इसलिए वे मानवता के मसीहा के रूप में नजर आते हैं।

युग चिंतक -

आचार्य प्रवर का चिंतन युगानुसार होता है। वे युगीन समस्याओं के समाधान में सदैव जागरूक रहते हैं। समस्याएँ भले समाज की हो या देश की उन पर युगानुकूल चिंतन प्रदान कर आप सबको सच्ची राह दिखलाते हैं। जब गंगाशहर मर्यादा महोत्सव के अवसर पर भरी सभा में मुरली मनोहर जोशी ने जैनों के अल्पसंख्यक व आरक्षण की मांग के संदर्भ में प्रश्न रखा तब आचार्य प्रवर ने सटीक किंतु समाजहित में जवाब देकर सबको चकित कर दिया। देश के विभिन्न स्थानों पर आप विभिन्न सभाओं में समाधान परक चिंतन प्रस्तुत कर युग चिंतक कहलाए।
महान यायावर- पदयात्रा मुनि जीवन का अनिवार्य अंग है। आचार्य प्रवर ने लगभग 52 हजार किलोमीटर से अधिक पदयात्रा कर विश्व के मानचित्र पर नई लकीरें खींची है। एक दिन में 47 किलोमीटर का विहार तो तेरापंथ की आचार्य परंपरा का अभिनव कीर्तिमान है। आपको भारत, भूटान व नेपाल में पदयात्रा करते देख महान यायावर का संबोधन भी छोटा प्रतीत होता है।

शासन प्रभावक

मात्र 12 वर्ष के आचार्य काल में आपने जो शासन की प्रभावना की है वह विलक्षण है। ऐसी प्रभावना जो सैंकड़ों वर्षों के जैन इतिहास में खोजने पर भी मिलना दुर्लभ है। आपकी अहिंसा यात्रा से करोड़ों लोग जैन धर्म से परिचित हुए, लाखों लोग नशामुक्त बनें। लाखों लोग बुराईयों से दूर रहने के लिए संकल्पित हुए। आपने पूरे भारत को अहिंसा के सूत्र में पिरोने का महान यत्न किया । आपके द्वार पर विभिन्न जाति, समाज, धर्म के लोग बिना किसी भेदभाव के आते रहे। आपने भगवान महावीर के अहिंसा धर्म को जैनों की चारदीवारी से बाहर लाकर सार्वजनीन बनाने का प्रयास किया। आपने जैन एकता के लिए साहस का परिचय देते हुए संवत्सरी एकता के लिए अपना कदम बढ़ाया। आप स्थानक, मंदिर, भवन, चर्च, गुरुद्वारा, मस्जिद आदि धर्म स्थानों पर भी मुक्त भाव से सद्भावना का संदेश लेकर गए। आप द्वारा की गई अथक अकथ शासन प्रभावना आपको शासन प्रभावक आचार्य के रूप में स्थापित करती है ।
कुशल अनुशास्ता - तेरापंथ एक आचार्य केन्द्रित धर्मसंघ हैं। यहाँ आचार्य की अनुशासना में पूरा धर्मसंघ चलता है। आचार्यप्रवर ने जब से शासन की बागडोर अपने हाथ में संभाली है तब से शासन के योगक्षेम के लिए अहर्निश प्रयत्नशील है। आप संघ की सारणा - वारणा में दक्ष है। आपके कुशल अनुशासन में पूरा धर्मसंघ प्रगतिशील बना हुआ है। आप सभी को यथाअनुकूलता उपयुक्त समय देने का प्रयत्न करते हैं। संघ के हर सदस्य के स्वास्थ्य, शिक्षा, सेवा के लिए आप हर संभव सहयोग प्रदान करवाते हैं। हर कोई चित्त समाधि में रहे यह आपकी व्यवस्थाओं का आदर्श सूत्र है। ये सभी बातें यह सूचित करती है कि आप कुशल अनुशास्ता हैं।

गुणों के सागर

आचार्य प्रवर गुणों के सागर हैं। आप पृथ्वी के समान सहिष्णु है। आपकी शून्य से समग्रता की यात्रा का मूल आधार विनम्रता, आचार निष्ठा, संघनिष्ठा, पापभीरूता व परोपकारिता है। आप गीतकार, संगीतकार, लेखक, वक्ता, प्रवचनकार, संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, राजस्थानी ,अंग्रेजी आदि भाषाओं के ज्ञाता, जैन सिद्धान्तों के प्रकाण्ड विद्वान हैं। आपकी सहजता, सरलता कोमलता, मृदुभाषिता, मिलन सारिता मन को आकृष्ट करने वाली है। आप की ओजस्विता, तेजस्विता और मनस्विता दर्शनीय है। आपका बाह्य व्यक्तित्व जितना आकर्षक है उससे कई गुना आकर्षक है आपका आन्तरिक व्यक्तित्व। आपका इस जगत में अतिशय प्रभाव है। आप प्रकृष्ट पुण्यों के धारक हैं। आपका विचरण तीर्थंकर युग की याद दिलाता है। आप अल्पभाषी, अल्पभोजी हैं। आप सागर के समान गंभीर, आपके विचार मेरू की तरह ऊँचे व आकाश की तरह व्यापक है। युगप्रधान अलंकरण स्वयं धन्य बना है आप श्री के चरण युगलों को पाकर के। युगप्रधान पदाभिषेक की पुण्यवेला में युगपुरुष के चरणों में कवि की दो पंक्तियों के समर्पण के साथ कोटि-कोटि प्रणाम युग प्रवर्तक, युग संस्थापक, युग संचालक हे ! युग प्रधान। युग निर्माता, युग मूर्ति, तुम्हें युग युग तक युग का प्रणाम।।