समर्पण की पराकाष्टा एवं कुशल प्रशासन का बेमिशाल योग

समर्पण की पराकाष्टा एवं कुशल प्रशासन का बेमिशाल योग

विशेष आलेख

मुनि सिद्धप्रज्ञ
दुनिया में कुछ व्यक्तित्व ऐसे होते हैं जो पूर्व जन्म के सुसंस्कार के साथ अद्भुत कोसल लिए उत्पन्न होते हैं और जो बचपन से सरलता समर्पण एवं साहस लेकर आते हैं वे जन्म से महान होते हैं और जो जन्म से महान होते हैं वे अपने पुरुषार्थ, एकाग्रता, संयम से परिपूर्ण होकर कर्म से महान बन जाते हैं और जो कर्म से महान बन जाते हैं वे पापभिरूता स्वाध्याय व गुरुकृपा पाकर भाग्य से महान बन जाते हैं।
ऐसे ही एक महान व्यक्तित्व हमारे सामने आया शासनमाता साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा जी के रूप में

समर्पण की पराकाष्टा

मैंने देखा साध्वीप्रमुखाश्री जी में संघ और संघपति के प्रति बेजोड़ समर्पण था, जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती गई वैसे-वैसे उनका गुरु के प्रति इंगित और आकार के प्रति समर्पण बढ़ता ही गया। अद्भुत था उनका समर्पण निस्वार्थ और उनका समर्पण बेजोड़ समर्पण था।

प्रशासनीय जीवनशैली

संघ महानिर्देशिका साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभाजी में प्रशासन करने की अद्भुत क्षमता थी। एक साध्वी होकर उच्चस्तर का प्रशासन होना एक विशिष्ट बात है। 700 से अधिक साध्वी समाज पर उनका प्रशासन एक महान गुरु की तरह उभरकर सामने आया। एक महिला होकर कितनी बड़ी नारी शक्ति संपन्न महिला समाज का कुशल नेतृत्व करना सभी के प्रति समान व संतुलित व्यवहार करना दुनिया का अद्भुत आश्चर्य था।

अनुशासन जीवनशैली एक गुरु के रूप में निखरकर सामने आया

असाधारण साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभा जी के अनुशासन शैली में आचार्य तुलसी की बाहरी कठोरता, आचार्य महाप्रज्ञ जी की भीतरी करुणा और आचार्य महाश्रमण की समता, क्षमता और प्रसन्नता तीनों का रूप एक साथ नजर आ रहा था।

आचार्य बनने की योग्यता

क्या तेरापंथी साध्वी एक आचार्य बन सकती है? युगप्रधान आचार्य तुलसी ने समय-समय पर धीरे-धीरे कनकप्रभाजी को आगे बढ़ाया। गुरुदेव ने उन्हें दीक्षित किया, शिक्षित किया, प्रशिक्षित किया और एक अपनी छवि के रूप में एक कुशल प्रशासक के रूप में तैयार किया। आचार्य तुलसी अनेक बार यह कहा करते थे कि साध्वी समाज का कुशल नेतृत्व करके मुझे निश्चिंत बना दिया।

आचार्य तुलसी की छवि के रूप में

जैसे आचार्य तुलसी 22 वर्ष की छोटी उम्र में तेरापंथ के आचार्य बने वैसे कनकप्रभाजी 30 वर्ष की उम्र में तेरापंथ धर्मसंघ की आठवीं महासती व प्रथम साध्वीप्रमुखा बनी।जैसे आचार्य तुलसी को समय-समय पर सर्वोत्तम संबोधन प्राप्त होते गए वैसे कनकप्रभाजी को समय-समय पर विशिष्ट संबोधन प्राप्त होते गए जैसे महाश्रमणी, संघ महानिर्देशिका, असाधारण साध्वीप्रमुखा, शासनमाता आदि-आदि।
जैसे आचार्य तुलसी ने पचास वर्ष से अधिक समय तक आचार्य पद पर प्रतिष्ठित रहे वैसे प्रमुखाश्री जी ने भी पचास वर्ष तक साध्वीप्रमुखा का कुशल संचालन किया। जैसे पचास वर्ष पूर्ण होने पर आचार्य तुलसी का अमृत महोत्सव मनाया गया वैसे ही पचास वर्ष पूर्ण होने पर प्रमुखाश्री का अमृत महोत्सव मनाया गया। दोनों का संबंध लाडनूं, गंगाशहर, केलवा, बीदासर आदि-आदि। दोनों ने 8 दशक पार कर नौवें दशक में प्रवेश कर लिया था। तीनों युगप्रधान आचार्यों को आगे बढ़ाने मे प्रमुख रही।
साध्वीप्रमुखाजी ने आचार्य तुलसी को साहित्य संपादन, साध्वियों व समणियों की सारणा-वारणा व लगातार यात्रा में सहयोगी बन करके लेखनी के माध्यम से संघ को आगे बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई।
आचार्य महाप्रज्ञ जी को धर्मसंघ की आंतरिक संभाल दूर प्रदेशों की यात्रा प्रशासनिक सेवा से शासन काल को ऊँचाई दी। आचार्य महाश्रमण जी ने प्रशासन के गुर बताए व अंतरंग व्यवस्था में अहर्निश भूमिका निभाई। भारत वर्ष आपकी विशेषता को कभी नहीं भूल सकेगा।

अपने जीवन के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त किया

सन् 2019 में साध्वीप्रमुखाजी ने कोरोना की चपेट में आने के बाद भी अपने सहनशीलता, क्षमाशीलता व प्रसन्नता नहीं छोड़ी। परिणामस्वरूप आचार्य महाश्रमणजी के आशीर्वाद मंगलभाव से कोरोना को भी अपने स्थान से जाना पड़ा। स्वास्थ्य पूर्ण स्वस्थ नहीं होते हुए भी प्रमुखाश्री रायपुर से उज्जैन पधारी और मुझे इस बात की हार्दिक प्रसन्नता है कि लॉक डाउन के चलते हुए भी आप मेरी उज्जैन में मुनि दीक्षा पर प्रत्यक्ष उपस्थित हुई और मेरे लिए दीक्षांत भाषण भी दिया।
भीलवाड़ा का अंतिम प्रवास सानंद संपन्न हो गया था। सभी स्वस्थ रहे साध्वीप्रमुखाजी पूर्ण स्वस्थ एवं सक्रिय रही। किंतु भीलवाड़ा से जयपुर जाते वक्त विजयनगर में अचानक अस्वस्थ हो जाने से जयपुर में वाहन से जाना हुआ। समुचित उपचार आदि हुआ। एक असाध्य बीमारी के लक्ष्णों ने आपको घेर लिया था पर गनिमत रही कि उस समय वह उसने अपना रूप स्वरूप शांत रखा, जिसके चलते प्रमुखाश्री का लाडनूं आना हुआ और अमृत महोत्सव का सफल आयोजन हुआ और आचार्यप्रवर ने तेरापंथ का एक अद्भुत अलंकरण ‘शासनमाता’ प्रदान कर अपने ऋण से मुक्त हुए तो शासनमाता ने आचार्यप्रवर को जैन धर्म का सर्वोच्च अलंकरण ‘युगप्रधान’ देकर अपने समस्त ऋण से मुक्त हुई।

जब आचार्यप्रवर ने अद्भुत रूप दिखाया

आचार्यश्री ने प्रमुखाश्री को समुचित उपचार हेतु दिल्ली भेजा और स्वयं अति तीव्र गति से पद यात्रा करते हुए जैन आचार्य के इतिहास में कीर्तिमान स्थापित कर दिल्ली पहुँच गए, प्रमुखाश्री जी को असाध्य बीमारी कैंसर ने पूरी तरह जकड़ लिया था पर उनकी कष्ट सहिष्णुता व प्रसन्नता से संघ निश्चिंत था पर आखिर मौत से झूलते हुए अंतिम दम तक प्रमुखाश्री जी ने अपना मनोबल व आत्मबल नहीं छोड़ा। दर्द होने पर आचार्यप्रवर ने कहा कि आप पेनकिलर ले लिया करो, हाथ जोड़ते हुए प्रमुखाश्री ने कहाµआप हमारे लिए पेनकिलर की तरह हो, दवाई की जरूरत नहीं आपके आने से दर्द कम हो जाता है। आचार्यप्रवर ने उनकी चित्त समाधि बढ़ाने में अहम् भूमिका निभाई। और प्रमुखाजी ने अपने अंतिम लक्ष्य को प्राप्त कर तेरापंथ धर्मसंघ व अपने कुल का गौरव बढ़ाया। अखंड भारत के नागरिक आपके कार्य अवदान अभियान को कभी नहीं भूल पाएगा।

जीवन अनुभव लिखने वाली वो कलम क्यूं थम गई।
सोने सी काया महासती की जा तुलसी में रम गई।