गाथा शासनमाता की

गाथा शासनमाता की

अपने पुरुषार्थ, प्रतिभा एवं प्रशासन कौशल के आधार पर साध्वी प्रमुखा, महाश्रमणी, संघ महानिदेशिका, असाधारण साध्वी प्रमुखा, शासनमाता जैसे गरिमामय पदों को गौरवान्वित करने वाली मातृ हृदया साध्वी प्रमुखाश्री कनकप्रभाजी की मैं स्मृति करता हूं।
आचार्य श्री तुलसी द्वारा खोजा गया अमूल्य रत्न साध्वी प्रमुखा कनकप्रभाजी ने गुरु तुलसी के पवित्र आभावलय में रहकर बहुमुखी विकास किया । शासनमाता की संघ निष्ठा, गुरु निष्ठा, आचार निष्ठा, सेवा निष्ठा, दायित्व निष्ठा, सत्य निष्ठा, अनुशासन निष्ठा, अध्यात्म निष्ठा, क्षम निष्ठा, संयम निष्ठा प्रेरक थी । गुरुदेव तुलसी ने 6/7/1994 दिल्ली के अध्यात्म साधना केन्द्र में फरमाया था- ‘साध्वी प्रमुखा कनकप्रभा की योग्यता, आचार्य पद की योग्यता से कम नहीं है।’
आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की संसारपक्षीय भानजी साध्वी प्रमुखा कनकप्रभाजी की सोच, हृदय और आचरण सब कुछ राजमहल जैसी विशालता, भव्यता एवं उच्चता लिए हुए था।
आचार्य श्री महाश्रमणजी का तो कहना ही क्या, आपश्री शासन माता को अत्यधिक सम्मान देते थे। उनको चित्त समाधि और आध्यात्मिक टोनिक देने के लिए गुरुदेव ने अपने देह की परवाह किए बिना लंबे-लंबे उग्र विहार किए। आचार्य प्रवर स्वयं उनको बैठकर वंदन करते थे। इससे उनकी महानता स्वयं सिद्ध होती है।
आजतक धर्मसंघ में कीर्तिमान है कि साध्वी प्रमुखाश्री कनकप्रभाजी को सर्वाधिक लंबे समय तक साध्वी प्रमुखा पद पर रहने का सौभाग्य मिला। मुझे लगा कि संघ महानिदेशिका के व्यक्तित्व में पराक्रम, पुरुषार्थ की चेतना अच्छी थी। महाश्रमणी जी में पुरुषार्थ भी था और उसी का एक अंग था प्रेरणा। वे दूसरों को प्रेरणा देते थे, ताकि दूसरे लोग विकास कर सकें। शासनमाता का जीवन विकास की यात्रा है।
संघ महानिदेशिका जी ने तीन आचार्यों की वरद छाँह में कृपामृत पीकर स्वयं को शक्ति- शांति संपन्न बनाया । प्रारंभ से अंत तक उनको गुरु सान्निध्य प्राप्त हुआ। कितनी विरल आत्मा थी। शारीरिक अस्वस्था में भी समता, सहनशीलता, आत्म रमण में तल्लीनता आपकी उत्कृष्ट साधना की पराकाष्ठा थी।
आठवीं साध्वी प्रमुखा के आठ दुलर्भ बिंदु -

  1. धर्मसंघ की पहली साध्वी प्रमुखा, जिन्होंने तीन गुरुओं की सेवा की।
  2. युवाचार्य मनोनयन पत्र में साक्षी रूप में हस्ताक्षर करने वाली साध्वी प्रमुखा।
  3. 80 हजार से अधिक कि.मी. की यात्रा आपने की है।
  4. 50 वर्षों तक साध्वी प्रमुखा के रूप में आपने धर्मसंघ को सेवा दी है।
  5. विदेश (नेपाल और भुटान) यात्रा करने वाली पहली साध्वी प्रमुखा ।
  6. पहली साध्वी प्रमुखा जिन्होंने आचार्य पदाभिषेक समारोह के कार्यक्रम का संचालन किया।
  7. राजकीय अतिथि का सम्मान पाने वाली साध्वी प्रमुखा।
  8. आचार्यों की उपस्थिति में भी पट्ट पर बैठने की आज्ञा प्राप्त करने वाली पहली साध्वी प्रमुखा।


ममतामयी शासनमाता की अत्यंत ममता मुझ पर -
शासनमाता मेरी परम उपकारी थी। संसारपक्षीय माताजी मुझे दीक्षा की आज्ञा नहीं दे रही थी, तो उनको समझाने का काम साध्वी प्रमुखाश्रीजी, मंत्री मुनिश्री और कई चारित्रात्माओं ने किया था और उसमें मुख्य भूमिका साध्वी प्रमुखाश्रीजी की थी। उन्होंने एक माँ बनकर मेरे संसारपक्षीय माँ को समझाया था।
संघ महानिदेशिकाजी की मेरे पर गृहस्थ काल से ही अत्यंत कृपा थी। 8 सितंबर 2013 को लाडनूं में गुरुदेव ने मुझ पर महती कृपा कर दीक्षा का आदेश फरमाया। मैं कार्यक्रम के बाद महाश्रमणीजी के दर्शन करने गया था। वहां जाकर देखा साध्वी प्रमुखाश्री बाहर सिढियों के पास विराज रहे थे। जाते ही उन्होंने मुझसे कहा- ‘अक्षय तुम तो कल कह रहे थे कि तुम्हें आज मुमुक्षु बनाएंगे, पर तुम्हारी तो दीक्षा का आदेश ही हो गया, अगर तुम हमको बताते कि गुरुदेव तुम्हारी दीक्षा आज फरमाने वाले हैं, तो हम प्रवचन में जरूर आते।’ मैंने कहा- ‘महाराज ! मुझे भी नहीं पता था कि गुरुदेव आज मेरी दीक्षा फरमाएंगें, मैंने तो मुमुक्षु बनाएंगें, ये ही सोचा था । महाराज मैं तो खुद ही सरप्राइज्ड था कि गुरुदेव मेरा सीधा प्रमोशनही कर देंगे।’ शासनमाता मुस्कुराने लग गए । फिर पास में बड़े एक साध्वी जी ने कहा कि- ‘जैसे ही बाहर तुम्हारा नाम अनाउंस हुआ, महाराज अपने कक्ष से बाहर पधार गए ताकि वो तुम्हारा स्पीच अच्छे से सुन सके, क्योंकि बाहर स्पीकर लगा हुआ था।’
साध्वी प्रमुखाश्रीजी वात्सल्यता की प्रतिमूर्ति थी। दीक्षा के बाद भी महाश्रमणीजी का बहुत वात्सल्य मुझे मिला। मेरे पैरों में छाले देखकर शासनमाता ने गुरुदेव को अर्ज किया कि ‘गुरुदेव इनके पैरों में बहुत छाले हो गए हैं, इन्हें मेहंदी लगानी पड़ेगी। कृपा कराएं।’
साध्वी प्रमुखाश्रीजी ने अनेकों बार मेरी गोचरी करवा कर दी। मैं जब भी गोचरी कर रहा होता और अगर आप वहां से पधार रहे होते तो मुझे देखकर मेरे पास आ जाते और झोली ले लेते और फिर पूरी गोचरी करवा कर मुझे झोली बक्शा देते । एक बार तो ऐसा हुआ कि शासनमाता आहार करवा रहे थे, मुझे देखा और सतियों को भेजा मुझे बुलाने के लिए। मैं संकोच कर रहा था क्योंकि कई सतियांजी आहार कर रहे थे। कुछ संकुचाते हुए मैं अंदर गया और साध्वी प्रमुखाश्रीजी ने अपनी पूरी सजी-सजाई गोचरी की पात्री मुझे बक्शा दी। मैंने कहा-‘महाराज गुरुदेव कुछ कहेंगे तो?’ शासनमाता ने कहा- ‘अगर गुरुदेव तुम्हें ओलमा दे तो, वह ओलमा तुम अगले दिन मुझे रिटर्न कर देना।’
आंध्र प्रदेश की यात्रा में महाश्रमणीजी को पता चला कि मैंने वर्षीतप चालू किया है। अगले ही दिन साध्वी प्रमुखाश्रीजी जब गुरुदेव को वंदना करने के लिए पधारे, तब संतो से पूछा- ‘वर्धमान मुनि कौनसे कमरे में हैं?’ संतो ने कमरा बताया। संघ महानिदेशिकाजी स्वयं मुझे दर्शन देने पधारे और कहा सुना है- ‘वर्षीतप चालू किया है।’ मैंने कहा- ‘तहत’ महाराज ने फरमाया- ‘क्यों कर रहे हो, आगे विहार बड़े हैं, गर्मी भी बहुत है और तुम्हारा शरीर भी कोमल है।’ मैंने कहा-‘महाराज मेरी बहुत समय से इच्छा थी। गुरुदेव की कृपा से और आपके आशीर्वाद से मैं इसे अच्छे से पूरा कर लूंगा।’ महाराज ने कहा- ‘मन तो नहीं है पर तुम अपना ध्यान अच्छे से रखना। पारणे में अच्छे से आहार करना। मंगलकामना।’ एक बार संसारपक्षीय मां ने प्रमुखाश्रीजी से कहा- ‘महाराज आपने इनको तो आगे बढ़ा दिया, मुझे क्यों प्रेरणा नहीं दी? वरना मैं भी बचपन में दीक्षा ले लेती।’ महाश्रमणीजी ने फरमाया- ‘अगर राजश्री तुम दीक्षा लेती तो हमे वर्धमान मुनि कैसे मिलते ? तुमने दीक्षा नहीं ली, इसलिए हमें वर्धमान मुनि मिल गए।’ इस प्रकार शासनमाता की बहुत कृपा मुझे मिली।
ऐसी प्रज्ञावान, आस्थावान, साधनाशील साध्वी प्रमुखाश्री कनकप्रभाजी के प्रति मैं प्रणति अर्पित करता हूं, वंदन करता हूं । उनके जीवन से हम सभी को संयम, त्याग, ज्ञान आदि की प्रेरणा मिलती रहे, आत्मबल-मनोबल की प्रेरणा मिलती रहे, यह अभिकांक्ष्य है। इन्हीं शुभ भावनाओं के साथ- ‘यूँ तो सभी मरण के राही हैं, एक रोज मर जाते हैं। पर धन्य वे हैं, जो मरकर भी अमर नाम कर जाते हैं।’