साधना का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है - अनासक्त रहो: आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

साधना का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है - अनासक्त रहो: आचार्यश्री महाश्रमण

लसेड़ी, 15 अप्रैल, 2022
चैत्र शुक्ला चतुर्दशी हाजरी का दिन एवं शासनमाता साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभाजी के प्रथम मासिक महाप्रयाण तिथि। तेरापंथ के वर्तमान के भिक्षु आचार्यश्री महाश्रमण जी ने फरमाया कि आदमी के भीतर आसक्ति का भाव भी आ जाता है। कभी-कभी अनासक्ति का भाव भी रह सकता है। हर आदमी में आसक्ति का भाव हो ही आवश्यक नहीं। वीतराग पुरुष है, उनमें पदार्थ के प्रति कोई भी आसक्ति का भाव आता ही नहीं। साधना का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र हैµअनासक्त रहो। कार्य के प्रति, पदार्थ के प्रति अनासक्तता और ऊँची बात है कि इस शरीर के प्रति भी अनासक्त रहना। शरीर को टिकाना है, तो प्रवृत्ति भी करनी होती है। प्रवृत्ति है, तो साथ में पाप कर्म का बंधन गहरा न हो। उसका उपाय हैµअनासक्ति। रहो भीतर, जीयो बाहर। बाहर प्रवृत्ति हो, भीतर निवृत्ति हो। इतनी सेवा-सुश्रुषा करते हुए भी मेरापन नहीं। ममत्व नहीं। साधु के तो अममत्व की साधना मजबूत होनी ही चाहिए। साधु की भाषा में तो मेरा मेरा नहीं, मेरी निश्राय में है। ममत्व की भाषा भी काम में मत लो। हमारे धर्मसंघ में तो शिष्य प्रथा को भी अलग रखा गया है। शिष्य के प्रति मेरापन नहीं। अपना चेला मत बनाओ। जो सेवा की व्यवस्था है, वो काम में लो।
आचार्यश्री योग्य व्यक्ति को दीक्षा दे। दीक्षा से पहले परीक्षा करो। आचार्य के भी चेले के प्रति मोह न हो। गुणवत्ता विहीन संख्यावत्ता अहितकर हो सकती है। हमारे धर्मसंघ में ममत्व और अहंकारतव को दूर रखने का प्रयास किया गया है। पद का कोई उम्मीदवार न बने। जहाँ सारे नेता नहीं हैं, पर नेता बनने का प्रयास करते हैं। जहाँ सारे पंडित नहीं हैं, पर सारे पंडित बनने का प्रयास करते हैं। जहाँ सब अयोग्यता में भी महत्त्वाकांक्षी है, वो राष्ट्र दुःखी बन जाता है। गीली मिट्टी का गोला दिवाल के चिपक जाता है, सूखी मिट्टी का नहीं चिपकता। वैसे आसक्ति से कर्म पुद्गल चिपक जाते हैं। अनासक्ति है तो कर्म बंधन उतना नहीं होता। कोरी प्रवृत्ति तो सूखी मिट्टी के समान है। कषायविहीन योग होता है तो बंधन नाम का सा होता है। आसक्ति से सघन बंध हो सकता है। आदमी अनासक्त रहे। आसक्ति में न उलझे। कमल पानी में रहते हुए भी पंक से लिप्त नहीं होता।
आज चतुर्दशी का दिन हाजरी का दिन है। मर्यादाओं का वाचन, स्मरणा होती है। पुनरावर्तन होता रहे, फेरा होता रहे। स्वाध्याय करते रहे। संरक्षक मुनि छोटे संतों का पुनरावर्तन कराते रहें। उससे अशुद्धियाँ भी दूर हो सकती हैं। प्रतिक्रमण भी कभी-कभी दूसरों को सुनाएँ कि कहीं कोई गलती तो नहीं है। उच्चारण को शुद्ध कराने में गुरुदेव तुलसी डॉक्टर थे। हमारे कई साधु-साध्वियाँ डॉक्टर हों, जो शुद्धियाँ करा सके। पूज्यप्रवर ने हाजरी का वाचन किया। बाल मुनियों ने लेख-पत्र का वाचन किया। पूज्यप्रवर ने बालमुनियों को दो-दो कल्याणक बख्शीष करवाए।
आज से एक महीना पहले हमारे धर्मसंघ की शासनमाता साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी का महाप्रयाण दिल्ली अनुकंपा भवन में हो गया था। आज पहली मासिकी तिथि है। उन्होंने तीन आचार्यों के शासनकाल में साध्वीप्रमुखा के रूप में सेवाएँ दी थीं। उनकी समाधि स्थल का नाम ‘वात्सल्य पीठ’ दिया गया है। शासनमाता की स्मृति में एक मंत्र जप की स्थापना की। ‘¬ ह्रीं श्रीं क्लीं शासन माते नमः’। जप का अनुष्ठान भी करवाया। इस मंत्र की स्थापना लगभग 11 बजकर 51 मिनट पर लसेड़ी गाँव में पूज्यप्रवर ने खड़े होकर करवाया।
शासनमाता की स्मृति में मुख्य मुनिप्रवर ने कहा कि गुरुओं के मुख से आचार्य पद की योग्यता रखने वाली साध्वीप्रमुखाश्री जी, श्रेष्ठ कवयित्री, कुशल लेखिका और निपुण वक्त्री, संघ महानिदेशिका शासनमाता की आज मासिक पुण्यतिथि है। साध्वीप्रमुखाश्री जी ने सुदीर्घ काल तक धर्मसंघ को सेवाएँ प्रदान की थी। मुख्य नियोजिका जी ने कहा कि मनोविज्ञान में दो प्रकार के व्यक्तित्वों की चर्चा मिलती है। बहिर्मुखी व्यक्तित्व और अंतर्मुखी व्यक्तित्व। अंतर्मुखी व्यक्तित्व वाला आदमी आत्मा के बारे में चिंतन करता है और आत्मा ही उसका केंद्र बिंदु बना रहता है। साध्वीप्रमुखाश्री जी का ऊर्ध्वमुखी व्यक्तित्व था। साध्वीवर्याजी ने भावांजलि देते हुए कहा कि प्रमुखाश्रीजी प्रबल पुण्याई के पुंज थे। उनकी पुण्याई को हमने हमेशा वर्धमान होते देखा। कारण वे अप्रमत्त जीवन जीती थी। वे जागरूक जीवन जीती थी। वे प्रबल पुरुषार्थ करती थी। जो लगता है, वह हमेशा धन्य होता है। शासनमाता भी हमेशा जागृत रहती थी। साध्वीवृंद ने समूह गीत के द्वारा शासनमाता के प्रति भावांजलि दी। स्कूल की पिं्रसिपल सुमन पुनियां ने पूज्यप्रवर के स्वागत में अपनी भावना अभिव्यक्त की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।