महासूर्य इक अस्त हुआ

महासूर्य इक अस्त हुआ

महासूर्य इक अस्त हुआ

कुसुम कोचर

कुछ व्यक्तित्व काल और समय की सीमाओं से परे होते हैं। वे हमसे कभी दूर नहीं होते, बल्कि उनके आकार निराकार में अदृश्य हो जाते हैं, पर उनकी गूँज सदियों तक महसूस की जाती है। ऐसी दिव्यता को श्रद्धांजलि नहीं दी जाती बल्कि अंतहीन स्तुति की जाती है। जब भावनाएँ प्रबल होती हैं तो शब्दों में व्यक्त होने से नकार देती हैं। गहन संवेदनाओं को मुखरित करने के लिए शब्द-गगन भी लघु पड़ जाता है, फिर भी एक छोटी-सी कोशिश है, स्तुति में दो शब्द प्रस्तुत करने कीµ

अंतस्तल पर विमल ध्यान धर
महासूर्य इक अस्त हुआ
वरदाई था जो युग तुमसे
उस युग का क्यूं अंत हुआ
चलता सूरज पाँव-पाँव तो
महकाता मरुधर-माटी
उजले से उन पदचापों से
खिलकर मुस्काती घाटी
जीवन पोथी का हर पन्ना
स्वर्ण कणों से सजा हुआ
इक विराट व्यक्तित्व स्वयं ही
सरस्वती से रचा हुआ
संभव नहीं अनंत ओज का
शब्दों में मुखरित होना
शब्दशून्य है कलम आज
है आहत मन का हर कोना
शासनमाता की गाथा
इतिहास सदा दोहरएगा
कालजयी है नाम तुम्हारा
स्वस्तिक नए रचाएगा।