अर्हम

अर्हम

अर्हम

साध्वी यशस्वीप्रभा

विरह व्यथा में आज व्यथित है धरा पर, कुदरत का हर पोर।
स्वयं में पुनः समाहित कर ली, क्यूँ जीवन की सतरंगी भोर।।

जीवन की हर सुबह गुलाबी, गण उपवन महकाती।
सांझ सुरंगी बनकर तुम, नभ में निरूपम चांद उगाती।
सांस सांस में गुरु खातिर विनय समर्पण का अर्घ्य चढ़ाती।
जीवन की देहरी पर बिन बाती, ममता का दीप जलाती।
ज्योतिर्मय चिन्मय ने क्यूँ आज खींच ली सांसों की डोर।।

वेदना से व्यथित होना तुमको कभी नहीं भाया।
गुरु दृष्टि में ही तुम्हारा संपूर्ण विश्व था समाया।
भगवान की दर भक्त पहुँचे यह प्रश्न नहीं अकुलाया।
भक्त के घर भगवान पहुँचे यह कैसा दृश्य दिखलाया।
शांत हो गई क्यूँ आज जीवन की रसमय हिलोर?

अखंड आनंद की हो आराधना ऐसी जगाई तुमने प्यास।
क्यूँ एक क्षण में ही टूट गया, स्वानुभूति का वो एहसास।
कहाँ मिलेगा अपनापन तुझ सा, कहाँ मिलेगा वो आश्वास।
क्यूँ भीतर में समाहित किया मम जीवन का उल्लास।
देना आशीर्वर मुझको ममत्व से समत्व की पाऊँ मैं ठौर।।