महावीर वाणी आज भी प्रासंगिक

महावीर वाणी आज भी प्रासंगिक

भारत देश वीर और वीरांगनाओं की जन्मभूमि है इस भूमि पर अनेक वीरों ने जन्म लेकर देश का गौरव बढ़ाया है। उन्हीं वीरों में एक नाम भगवान महावीर का आता है। जिनका जन्म विहार प्रांत में क्षत्रिय कुंड नगर में हुआ था। जिनके पिताजी का नाम राजा सिद्धार्थ और माता का नाम त्रिशला था।
तीर्थंकरों को गर्भकाल से ही तीन ज्ञान होते हैंµमतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान। चौबीस तीर्थंकरों में केवल महावीर ही ऐसे तीर्थंकर हुए जो दो माताओं के उदर में पले। पहले देवानंदा ब्राह्मणी की कुक्षि में रहे फिर माता त्रिशला की कुक्षि में आए जन्मदाता माता त्रिशला होने के कारण त्रिशला सुत कहलाए। जब वे माता त्रिशला के उदर में थे उस समय उन्होंने सोचा मेरे हलन-चलन से माता को पीड़ा होती है, इसलिए उन्होंने अपने अंगों को नियंत्रित कर लिया। माता ने सोचा पेट में हलन-चलन बंद हो गया। लगता है बच्चे का आयुष्य पूर्ण हो गया और माता त्रिशला विलापात करने लगी। माता को आर्त्तध्यान में मग्न देखकर महावीर ने सोचाµमैंने तो माँ की पीड़ा को समाप्त करने के लिए अंगों पर नियंत्रण किया मगर माँ मोहवश आर्त्तध्यान कर रही है। महावीर ने पुनः पूर्ववत हलन-चलन प्रारंभ किया और माँ प्रसन्न हो गई, परंतु महावीर उस समय अवधिज्ञानी थे वीतरागी नहीं थे, उन्होंने गर्भकाल में ही यह संकल्प कर लिया कि जब तक माता-पिता जीवित रहेंगे मैं दीक्षा नहीं लूँगा। क्योंकि थोड़ी देर हलन-चलन बंद करने से ही माँ दुखी हो रही है अगर मैं दीक्षित होऊँगा तो वो सहन नहीं कर सकेगी।
भगवान महावीर का जन्म चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन हुआ। राजा सिद्धार्थ और माँ त्रिशला के ही नहीं पूरे राज्य में खुशी का माहौल बना इतना ही नहीं तीर्थंकरों के पाँच कल्याणक होते हैंµच्यवन, जन्म दीक्षा-केवलज्ञान और निर्वाण पाँचों समय देव उत्सव मनाते हैं। नारकीय जीव भी प्रसन्न होते हैं। भगवान महावीर का जन्म नाम वर्धमान रखा गया, क्योंकि उनके जन्म के साथ ही राज्य में चारों ओर समृद्धि बढ़ी अनमि राजा भी सिद्धार्थ चरणों में नतमस्तक हो गए।
वर्धमान का बाल्यकाल भी सबको प्रभावित करने वाला था। एक बार वे अपने साथियों के साथ खेल खेल रहे थे। उस समय कोई सर्प आ गया। सर्प को देखकर सभी बालक भयभीत हो गए। इधर-उधर दौड़ गए। परंतु वर्धमान ने उस सर्प को पकड़कर बाहर फेंक दिया, यह देखकर सभी बालक वर्धमान की वीरता को देखकर आश्चर्यचकित हो गए।
पढ़ने के लिए जब गए तो पहले ही दिन उनके विलक्षण ज्ञान को देखकर अध्यापक भी उनको पढ़ाने में अपने आपको असमर्थ महसूस करने लगे। उन्हें स्कूली पढ़ाई की कोई आवश्यकता ही महसूस नहीं हुई। क्योंकि उनके पास जन्मजात ही तीन ज्ञान थे।
युवा होने पर उनकी शादी भी की गई समयांतर में एक लड़की भी हुई जिसकी भी समय आने पर शादी कर दी गई। इस प्रकार महावीर गृहस्थ कार्य से निवृत्त हो गए। जब माता-पिता का स्वर्गवास हो गया तब उन्होंने सोचाµअब मेरा संकल्प भी पूरा हो गया और अब मुझे जल्दी ही दीक्षा लेनी है। उन्होंने अपनी भावना बड़े भाई नंदीवर्धन के सम्मुख रखी परंतु अनुमति नहीं मिलने के कारण दो वर्ष घर में रहकर ही साधना करते रहे। उनकी वैराग्य वृत्ति को देखकर दो वर्ष पश्चात जब भाई से अनुमति मिली तब आपने मृगसरबदि दशमी के दिन सिद्धों की साक्षी से दीक्षा स्वीकार की बारह वर्ष की घोर तपस्या के पश्चात आपको केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। केवलज्ञान की प्राप्ति के पश्चात आपने प्रवचन प्रारंभ किया। आपका दिव्य संदेश प्राणीमात्र के कल्याण के लिए था। भगवान महावीर के समवसरण में सिंह और बकरी भी पास बैठकर उनकी वाणी सुनते, उनके सदुपदेश से चौदह हजार संत और छत्तीस हजार साध्वियाँ बनीं। भगवान महावीर ने साधुओं के लिए महाव्रतों की व्यवस्था दी, वैसे ही गृहस्थों के लिए अणुव्रतों की बात बताई। महावीर ने अहिंसा, संयम तप की जो बात बताई, वह आज भी प्रासंगिक है। जन-जन के लिए आदेय है। जितनी भी समस्याएँ पैदा होती हैं, उसके मूल में देखें तो हिंसा असंयम भोग का ही साम्राज्य देखने को मिलता है। हम अपने जीवन में अहिंसा, संयम तप की आराधना साधना करके सुख-शांति, आनंद को प्राप्त कर सकते हैं, महावीर जयंती पर महावीर के गुणगान करके ही नहीं महावीर की वाणी को अपनाने का प्रयास करें। जिससे आत्मा, परिवार, समाज, देश और विश्व का कल्याण हो सके।