समुद्ररूपी संसार को शरीर रूपी नौका से पार करने का प्रयास करें : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

समुद्ररूपी संसार को शरीर रूपी नौका से पार करने का प्रयास करें : आचार्यश्री महाश्रमण

बीआईटीएस कॉलेज, 4 अप्रैल, 2022
संत शिरोमणी आचार्यश्री महाश्रमण जी कलानौर से सतीदास भाई संत आश्रम परिसर से 14 किलोमीटर विहार कर फुलपुरा के बीआईटीएस कॉलेज परिसर में पधारे। महामनीषी ने मंगल प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि हमारी दुनिया में यातायात के अनेक साधन हैं। प्लेन, रेल, कार, बस, टैम्पो, साइकिल या स्कूटर से यात्रा की जाती है। नौका के द्वारा भी यात्रा की जाती है।
वाहन इसलिए है कि रास्ता पार हो जाए। प्रश्न है कि जलीय यात्रा के लिए नौका का उपयोग होता है। शास्त्रीय उल्लेख में भी नौका की यात्रा की व्यवस्था है। गुरुदेव तुलसी ने भी नौका से यात्रा की थी। नौका की यात्रा शास्त्र-सम्मत विधि है।
शास्त्रकार ने नौका के उदाहरण से एक बात बताई है कि यह हमारा शरीर भी एक प्रकार की नौका है। जीव-आत्मा नाविक है और यह जन्म-मरण की परंपरा रूपी संसार समुद्र है। अरणव है सागर है। इस नौका से तरें। महर्षि लोग इस नौका से तर सकते हैं।
हमें जो मानव शरीर प्राप्त है, वह बड़ा महत्त्वपूर्ण है। शरीर तो और भी जीवों को प्राप्त है, पर मानव शरीर विशेष है। पशु भी जो श्रावक होते हैं, कुछ अंशों में उनका शरीर भी नौका बन सकता है। मानव का शरीर बड़ी नौका है, पशु का शरीर छोटी नौका है। कारण मानव तो इसी जन्म के बाद मोक्ष जा सकता है, परंतु पशु उसी जन्म के बाद मोक्ष में नहीं जा सकते।
मानव का शरीर तो पाँचवें गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान में जाकर मुक्त हो सकता है। मानव का शरीर अच्छी नौका बन सकता है। जन्म-मरण के भवसागर को तरना है, तो कितनी तो यात्रा करनी पड़ेगी। नौका चलेगी तो उस पार पहुँचेगी। नौका में बैठ गए, चले नहीं तो पार कैसे पहुँचे। शरीर से साधना करेंगे तभी जन्म-मरण के संसार सागर से तर पाएँगे।
प्रश्न है कि किस तरह इस नौका का उपयोग करें? संयम-तप के द्वारा इस नौका को पार लगाएँ। तभी भवसागर पार हो सकता है। संयम-तप को नहीं जानता तो कैसे सागर पार होगा।
इस शरीर को नौका कहा गया है, इसमें आश्रवरूपी छेद हो जाए तो नौका डुबोने वाली हो सकती है। ये शरीर रूपी नौका सक्षम अच्छी है या नहीं, वह कैसे? जब तक बुढ़ापा पीड़ित न करे, जब तक व्याधि शरीर में न बढ़ें, जब तक इंद्रियाँ हीन न हो तब तक धर्म का समाचरण कर लो।
शरीर की सक्षमता में तीन बाधाएँ हैंµपहली बाधा हैµबुढ़ापा। दूसरी बात है कि बुढ़ापा तो नहीं आया पर बीमारी लग गई। तो आदमी इतना काम नहीं कर सकता। व्याधियाँ शरीर में न बढ़ें।
तीसरी बात हैµइंद्रियाँ हीन न हों। इंद्रियाँ कमजोर पड़ जाए तो असक्षमता आ सकती है। इस तरह ये तीन बाधाएँ हैं। जब तक ये तीन बाधाएँ शरीर में नहीं हैं, तब तक जिंदगी में बढ़िया काम करना हो सो कर लो। बाद का ज्यादा भरोसा नहीं करना चाहिए। जब तक शरीर स्वस्थ है, धर्म की अच्छी साधना कर लो। शरीर अनुकूल है, तो काम हो रहा है।
परमपूज्य आचार्य तुलसी ने पूर्वांचल और दक्षिणांचल की लंबी यात्राएँ 60 वर्ष की उम्र आने से पहले कर ली थी। शरीर की भी सक्षमता थी। गृहस्थ भी परिवार, समाज का व्यवहार निभाते हुए धर्म की साधना भी करें। साधु के भी सक्षमता रहते हुए सेवा का कर्जा उतर जाए। मार्ग सेवा भी लोग करते हैं, वो सक्षमता हो तो हो सकती है। शास्त्रकार ने कहा कि जब तक बुढ़ापा पीड़ित न करे, जब तक व्याधि न बढ़े, जब तक इंद्रियाँ हीन न हो, तब तक धर्म का समाचरण कर लो।
शरीर नौका है, इस नौका को चलाएँ, इसका उपयोग करें। नौका अभी ठीक है, तो इससे भवसागर को पार करने का प्रयास करो।
कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने बताया कि जैन धर्म में अहिंसा का बड़ा महत्त्व है, उसको विस्तार से समझाया।