संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

बंध-मोक्षवाद
भगवान् प्राह

(28)

रागो द्वेषश्च तद्धेतुः, वीतरागदशा सुखम्।
रत्नत्रयी च तद्धेतुः एष योगः समासतः।।


दुःख के हेतु हैंµराग और द्वेष। वीतराग दशा सुख है और उसका हेतु हैµरत्नत्रयीµसम्यक्-दर्शन, सम्यक्-ज्ञान और सम्यक्-चारित्र। योग का यह मैंने संक्षिप्त निरूपण किया है।
भगवान् महावीर ने कहाµजन्म दुःख है, बुढ़ापा दुःख है, रोग दुःख है और मृत्यु दुःख है। यह संसार ही दुःख है, जहाँ प्राणी क्लेशों को प्राप्त होते हैं। जरा, रोग, मृत्यु और अप्रिय वस्तुओं का संयोग दुःख है। व्यक्ति दुःखों के कारणों को जान लेने पर ही दुःख-मुक्ति की ओर अग्रसर होता है। दुःख मुक्ति का उपाय हैµसंवर (निवृत्ति)। अकर्म के बिना दुःख का निरोध नहीं होता। दुःखोत्पन्न करने वाली मूल प्रवृत्तियाँ हैंµरागात्मक और द्वेषात्मक। इनका न होना सुख है। सुख की प्राप्ति के लिए रत्नत्रयी का आलंबन अपेक्षित है। सम्यग्-दर्शन, सम्यग्-ज्ञान और सम्यग्-चारित्रµयह रत्नत्रयी है। तीनों आत्मा के गुण हैं और आत्मा के निकटतम सहचारी हैं। आत्मा का निश्चय सम्यग्-दर्शन, आत्मा का बोध सम्यग्-ज्ञान और आत्म-स्थिरता सम्यग्-चारित्र है।
महात्मा बुद्ध के चार आर्य-सत्य हैंµदुःख, दुःख-समुदाय, दुःख-निरोध और दुःख-निरोध का उपाय। दुःख-समुदाय में भगवान् बुद्ध ने द्वादश निदान बताए हैं। द्वादश निदान का निरोध दुःख-निरोध है। भगवान् महावीर की दृष्टि में राग और द्वेष का निरोध ही दुःख का अवसान है। दुःख निरोध का उपाय भगवान् बुद्ध की दृष्टि में अष्टांगिक मार्ग है और भगवान महावीर की दृष्टि में रत्नत्रयी है। बुद्ध कहते है।µचार आर्य-सत्यों के ज्ञान से निर्वाण होता है। भगवान् महावीर कहते हैंµरत्नत्रयी के ज्ञान ओर अनुसरण से मुक्ति होती है।

मेघः प्राह

(29)

भद्रं भद्रं तीर्थनाथ!, तीर्थे नीतोऽस्म्यहं त्वया।
भावितात्मा स्थितात्मा च, त्वया जातोऽस्मि सम्प्रति।।

मेघ बोलाµहे तीर्थनाथ! अच्छा हुआ, बहुत अच्छा हुआ। आपके प्रसाद से मैं तीर्थ में आ गया हूँ और आपके अनुग्रह से मैं अब भावितात्मा और स्थितात्मा हो गया हूँ।
मोह का निरसन मोह से नहीं होता। अज्ञान का अंधकार ज्ञान की ज्योति के सामने क्षीण हो जाता है। खून से सना वस्त्र खून से शुद्ध नहीं होता। ममत्व का आवरण निर्ममत्व से हटता है। बंध से बंध का क्षय नहीं होता। भगवान् महावीर से दुःख, दुःख-मुक्ति का उपाय, बंध, मोक्ष, अहिंसा आदि का विशद विवेचन सुन मेघ की निमीलित आँखें खुल गईं। वह सचेतन हो गया। मोह का आवरण हटने लगा। ज्ञान के प्रकाश के सामने तम नष्ट हो गया। मेघ के लड़खड़ाते पैर पुनः स्थिर हो गए। उसने अपने हृदय की गाँठ भगवान् के सामने खोल दी।

(30)

नष्टो मोहो गतं क्लैव्यं, शुद्धा बुद्धिः स्थिरं मनः।
पुनर्मौनं तवाभ्यर्णे, स्वीचिकीर्षामि साम्प्रतम्।।

अब मेरा मोह नष्ट हो गया है, क्लैव्य चला गया है, बुद्धि शुद्ध हो गई है और मन स्थिर बन गया है। अब मैं पुनः आपके पास श्रामण्य स्वीकार करना चाहता हूँ।

(क्रमशः)