साँसों का इकतारा

साँसों का इकतारा

(69)

तुम महाप्राण बन गए देव!
मैं रही अभी तक अल्पप्राण
तुम अमित शक्ति के òोत बने
पर मैं उससे अब तक अनजान।।

तुमने मेरे शिशु-मानस को
सपनों में आकर सहलाया
वह लगा मचलने तब तुमने
दे मधुर प्रलोभन बहलाया
मेरी अबूझ उलझन के तो
बन गए स्वयं तुम समाधान।।

जब भूल राजपथ इधर-उधर
मैं भटक रही थी कानन में
तब घोर अंधेरे में बिजली
चमकाई थी तुमने घन में
फिर बुला रहे संकेतों से
कब भूल सकी वह मधुर-गान।।

(70)

तुम्हें जानने की मन में उत्सुकता छाई।

बने हुए हैं शब्दचित्र कितने ही तुम पर
पर अज्ञात आज तक मुझसे उनकी शैली
डूब गई अनगिन पृष्ठों की श्यामलता में
रहा आज तक भी यह जीवन गूढ़ पहेली
उड़ी कल्पना के पंखों से भी अनंत में
जटिल तुम्हारे जीवन को मैं समझ न पाई।।

तुम-मुझ में अद्वैत मानकर देव! आज तक
बार-बार भ्रम के झूले में झूल रही थी
तुमको पाना सहज इसी चिंतन से प्रेरित
देख तुम्हारी मुस्कानों को भूल रही थी
समझ हुई कुछ प्रौढ़ मुझे महसूस हो गया
कहाँ समुन्नत हिमगिरि और कहाँ पर खाईं।।

सपनों की दुनिया में जब-जब मैंने देखा
सदा हाँकते आए तुम मेरा जीवन-रथ
तिमिर-जाल को चीर जलाकर दीप हजारों
दिखलाते आए हो तुम मुझको अपना पथ
आँख खुली मेरी तब तुम अदृश्य हो गए
पकड़ नहीं पाई अब तक तेरी परछाईं।।

(71)

जनपथ पर उतरी छाया में सुरतरु तुम साकार।
कामकुम्भ-सा रूप देखकर प्रणत हुआ संसार।।

क्लान्ति मिटाते रहते हो तुम शतशाखी पादप बन
श्रांति दूर करती रहती है शीतल छाया छन-छन
शांति तुष्टि का अनुभव होता पथिकों को हर बार।।

आतप से तपते लोगों का ताप हरा है तुमने
बिना माप आबाल वृद्ध में मोद भरा है तुमने
मिलता रहे तुम्हारा सबको श्रेयस्कर आधार।।

दीर्घ साधना से बन पाए युग के सफल प्रणेता
श्रद्धानत सौ बार तुम्हें वह आज बधाई देता
पर-उपकार-परायण मानव पा लेता विस्तार।।
(क्रमशः)