जैन-योग में कुंडलिनी

स्वाध्याय

जैन-योग में कुंडलिनी

प्रेक्षा: अनुप्रेक्षा

जैन-योग में कुंडलिनी
प्रश्न: कुंडलिनी या तैजस-शक्ति को जाग्रत करने में अनेक खतरों की संभावना। है। यह बात सर्वसम्मत जैसी है। खतरों को मोल लेकर उस शक्ति के विकास की क्या अपेक्षा है?
उत्तर: खतरों की संभावना से किसी महत्त्वपूर्ण काम को रोका नहीं जा सकता है। खतरे किस काम में नहीं है? ऊपर, नीचे, तिरछे सर्वत्र खतरे-ही-खतरे हैं। साहसी व्यक्ति उनके बीच में गुजरता है और उन्हें पार कर विशेष उपलब्धि कर लेता है। जो व्यक्ति खतरों के आगे घुटने टेक देता है, वह कभी आगे बढ़ ही नहीं सकता। मार्ग साधना का हो या व्यवसाय का, वैज्ञानिक आविष्कारों का हो या रोटी बनाने का, खतरे कहीं भी हो सकते हैं। तैजस-शक्ति को जगाने की प्रक्रिया भी खतरों से खाली नहीं है। बिना समाधि अवस्था या निर्विकल्प अवस्था भी संभव नहीं है। इसमें ध्यान केंद्रित होने से ही समाधि की स्थिति प्राप्त हो सकती है। अन्यथा विचारों की उखाड़-पछाड़ रूक नहीं सकती। तैजस-शक्ति जग जाती है तो जीवन में लयबद्धता अपने आप आ जाती है। विचार आते ही नहीं। अपेक्षा होने पर समाधि तोड़नी पड़ती है, किंतु समाधि लगाने के लिए कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता।
प्राचीन ग्रंथों में तैजस-शक्ति या कुंडलिनी जागरण के और भी कुछ परिणाम बताए हैं। सामान्यतः हर व्यक्ति के केश और नख बढ़ते हैं। तेजस-शक्ति का विकास होने पर इनकी वृद्धि रुक जाती है। शरीर और मन की बीमारियां समाप्त हो जाती हैं। शरीर के रासायनिक परिवर्तनों के साथ ये परिवर्तन असंभव भी नहीं है। तीर्थंकरों की अतिशयगाथा में ये सब बातें सम्मत हैं। तीर्थंकरों के केश और नख नहीं बढ़ते। यह अतिशयोक्ति। नहीं, वास्तविकता है। वे आधि और व्याधि से भी मुक्त रहते हैं। मानसिक बीमारियां तो। उन्हें होती ही नहीं। शारीरिक भी आगंतुक हो सकती हैं, विकारजनित नहीं। उनके शरीर में इतना तैजस सक्रिय रहता है कि बीमारी के परमाणु भस्मसात हो जाते हैं।
तैजसशक्ति दो प्रकार की होती है-शीत और उष्ण। शीत तैजस का प्रयोग अनुग्रह के लिए किया जाता है और उष्ण तैजस का प्रयोग निग्रह में होता है। वरदान और अभिशाप दोनों रूपों में काम करने वाली यह शक्ति अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। यही कारण है। कि साधक खतरों की संभावनाओं को स्वीकार करके भी तैजस-शक्ति के विकास और जागरण हेतु प्रयत्नशील रहता है। तैजस-शक्ति के दो रूप हैं-विपुल और संक्षिप्त। जागृत शक्ति को विपुल कहा जाता है और सुप्त को संक्षिप्त। इनके संबंध में पहले बताया ही जा चुका है।

आभा-मंडल

तेजोलेश्या छोड़ती, मन पर दिव्य प्रभाव।
उजले आभावलय से, सुख का प्रादुर्भाव।।
आकर्षण आभा-जनित, आकृति पर मृदुहास।
पतझर में भी फूलता, कोई नव मधुमास।।

प्रश्न: तेजोलेश्या, तेजोलब्धि और तैजस-शक्ति, एक ही अर्थ के आस-पास ये तीन शब्द हैं। लब्धि और शक्ति शब्द का उपयोग तो अनेक ग्रंथों में मिलता है। पर लेश्या शब्द शायद जैन दर्शन का ही पारिभाषिक शब्द है। यह लेश्या और तेजोलेश्या अपनी अर्थयात्रा में किन नए तथ्यों को अभिव्यक्ति दे सकते हैं?
उत्तर: जैन दर्शन में लेश्या का सिद्धांत बहुत व्यापक और सबको प्रभावित करने वाला है। तेजोलेश्या की जागृति और सक्रियता के बिना साधना में प्रवेश नहीं हो सकता, अध्यात्म का विकास नहीं हो सकता। जब इस लेश्या के स्पंदन जागते हैं तब मन पर दिव्य प्रभाव-सा होता है। उन क्षणों की अनुभूति इतनी सुखद होती है, जिसे शब्दों से अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता। इस लेश्या की सक्रियता से आभावलय निर्मल होता है और पदार्थ से न मिलने वाले सुखद संवेदन जाग्रत होते हैं। जिस व्यक्ति की तेजोलेश्या विकसित हो जाती है, उसमें लौकिक संपर्कों से होने वाली दुश्चिंताएं और दुर्भावनाएं समाप्त हो जाती है। उसमें सहज आभा प्रकट होती है और वह आकर्षण का केंद्र बन जाता है। तेजोलेश्या जितनी प्रशस्त होती है, व्यक्ति की भावनाएं उतनी शुद्ध होती जाती हैं। वह चिंताओं से सर्वथा मुक्त हो जाता है और उसकी आकृति पर निरंतर मधुर मुस्कान बिखरी हुई रहती है। उसके संपर्क में आने वाला व्यक्ति भी अपने आप में एक खिंचाव का अनुभव करता है। जिसकी तैजस-शक्ति जागृत हो जाती है, वह बुरे आचरण और व्यवहार के प्रति सहज उदासीन हो जाता है। वह किसी का अहित-चिंतन नहीं करता और न ही अपनी प्रवृत्ति से किसी को दुःख पहुंचाता है।
लेश्या या तेजोलेश्या एक प्रकार की पौद्गलिक शक्ति है, जिसके आधार पर भावधारा का निर्माण होता है। जिस व्यक्ति की लेश्या जैसी होती है, वह वैसा ही व्यवहार करने लगता है। व्यक्तित्व-विकास और अध्यात्म-विकास दोनों ही दृष्टियों से लेश्या का कार्यक्षेत्र व्यापक है। पुद्गलात्मक तेजोलेश्या के वर्ण, गंध, रस, स्पर्श आदि भी विशिष्ट होते हैं, इसलिए वह व्यक्तित्व विकास में सहायक बनती है।
प्रश्न: आभा-मंडल और लेश्या एक ही चीज है क्या?
उत्तर: सूर्य तेजोमय परमाणुओं का पिण्ड है। उसकी रश्मियां फैलती हैं और पुनः उसी में समाविष्ट हो जाती हैं। तेजस-शक्ति या तेजोलेश्या को इसी रूप में समझा जा सकता है। वह शरीर के भीतर है। प्रयोगकाल में उसकी रश्मियां बाहर निकलती हैं। उन रश्मियों के परमाणुओं का विकिरण होने से आभावलय बनता है। लेश्या दो प्रकार की होती है-भावलेश्या और द्रव्यलेश्या। भावलेश्या का संबंध आत्मा के परिणामों (भावधारा) से है। द्रव्यलेश्या के विकिरण परमाणुओं की संघटना है। यही आभावलय है। इसकी मलिनता और उज्ज्वलता भावलेश्या पर निर्भर है। भावलेश्या विशुद्ध है तो आभावलय उज्ज्वल होगा और भावलेश्या मलिन है तो आभावलय भी धुंधला रहेगा।
आभा-मंडल केवल मनुष्य में ही नहीं होता, वनस्पति में भी होता है। वनस्पति तो सजीव है, अचेतन पदार्थों में भी आभामंडल होता है। उनमें प्राण भले ही न हों, तेजसशक्ति तो होती ही है। चेतन का आभा-मंडल परिवर्तनशील होता है। क्योंकि उनकी भावधारा के साथ-साथ आभावलय भी बदलता रहता है। अचेतन में कोई भावधारा नहीं होती, इसलिए उसका आभावलय स्थायी होता है। जिन पदार्थों के प्रति सहज आकर्षण होता है, उसका कारण उनका आभामंडल ही है। कुछ व्यक्ति शारीरिक दृष्टि से सुंदर। नहीं होते। न तो वे मांसल होते हैं, न गौरवर्ण वाले होते हैं, फिर भी आकर्षण के केंद्र बन जाते हैं। कुछ व्यक्तियों की शरीर-रचना काफी सुघड़ होती है। वे गौर वर्ण और पुष्ट शरीर वाले होते है। फिर भी उनके प्रति किसी के मन में खास आकर्षण नहीं होता। इसका प्रमुख कारण आभा-मंडल ही है। आभा-मंडल जितना उज्ज्वल होगा, व्यक्ति उतना ही आकर्षक, प्रभावशाली, उपादेयवचन और आदरास्पद होगा, यह अनुभूत तथ्य है।