पुण्यात्मा का महाप्रयाण

संपादकीय

पुण्यात्मा का महाप्रयाण

पुण्यात्मा का महाप्रयाण

मानवीय असाधारणता के बहुमुखी प्रतिमानों को अपने आप में समाहित करने वाली मातृहृदया साध्वीप्रमुखाश्रीकनकप्रभाजी के जीवन में ताउम्र अध्यात्म, अनुशासन और वात्सल्य की अविरल धारा बहती रही। अंतिम समय में भी मनोरथ के रूप में आख्यायित संथारा-संलेखना से पूर्व उन्होंने कायिक कष्ट को जिस समताभाव से सहन किया वो उनकी असाधारणता के विरल गुणों का एक प्रतिबिम्ब मात्र है।
जीवन के प्रारम्भिक काल से ही अपनी प्रतिभा से प्रतिष्ठित, शांत संयत और शिष्ट कन्या कलावती की जन्मधरा कोलकाता से तेरापंथ के जन्म स्थल केलवा (दीक्षाभूमि) तक की यात्रा भी कम विशिष्ट नहीं थी। जीवन के सत्य को पाने और अपनाने की आंतरिक प्रेरणा ने उन्हें साध्वी कनकप्रभा बनाया। ‘तिन्नाणं तारयाणं’ के सूत्र को आत्मसात् करते हुए उन्होंने स्वकल्याण के साथ-साथ अगणित मुमुक्षुओं, समणियों, साध्वियों और मुनियों सहित सम्पर्क गत आबाल वृद्ध नर-नारी के कल्याण का पथ प्रशस्त किया।
धन्य है आचार्य तुलसी की पारखी नजरें जिन्होंने 14 जनवरी 1972 को गंगाशहर की पुण्यधरा पर जब उन्होंने 12 वर्ष से भी कम दीक्षा काल की साध्वी कनकप्रभा को तेरापंथ धर्मसंघ की साध्वीप्रमुखा के पद पर नियुक्त किया। इस बात को कविवर कन्हैयालाल सेठिया ने इन पंक्तियों में चित्रित किया है
साध सत्यां देख्या घणा, थे सां स्यूं सिरमोर
तुलसी जी सा पारखी हुवै न कोई और
अपने स्वभावनुरूप प्रमुखाश्रीजी का समर्पण भाव भी द्रष्टव्य है
ऊणै खूणै में पड्या, म्हां सरीखा पाषाण
पड़ी नजर गुरुदेव री, ओ मोटो अहसाण
साध्वीप्रमुखा के रूप में उन्होंने न सिर्फ साध्वी और समणी संकुल के सर्वांगीण विकास का पथ प्रशस्त किया अपितु समग्र तेरापंथ समाज की ‘आधी शक्ति’ को शक्ति की महत्ता और उपयोगिता का मंत्र दिया। साध्वीप्रमुखा के रूप में तीन-तीन यशस्वी आचार्यों की असीम कृपा प्राप्ति, प्रगाढ़ विश्वास का अर्जन और इंगित को आराधना धर्मसंघ के इतिहास में स्वर्णाक्षरों से अंकित रहेगा। अपनी वैयक्तिक साधना, साधुचर्या, स्वाध्यायशीलता, सृजनात्मकता और साहित्यधर्मिता के प्रति सतत सचेत रहते हुए उन्होंने अपने विनीत साध्वी समुदाय को सदैव श्रमशील, साधनानिष्ठ और शिक्षार्थी रहने की सीख दी। धर्मसंघ के सभी अंगों को उनकी प्रेरणा और प्रभावोत्पादकता से प्रवर्द्धित और प्रगतित होने का संयोग और सुयोग प्राप्त होता रहता है। अणुव्रत के अधिवेशनों में उन्होंने नैतिकता और नशामुक्ति की बात को बुलन्द किया। युवकों के समुच्चय में जोश और जुनून के साथ जिज्ञासु और जागरूक रहने का पाठ पढ़ाया। कन्याओं को जीवन की कला में विकसित होने का मार्ग दिखाया वहीं किशोरों को शिखरों के आरोहण का सोपान उपहृत किया। महासभा सम्मेलनों में प्रतिनिधियों में दायित्व बोध जगाया तो प्रोफेशनल्स को अपनी विशेषज्ञता को संघीय सदुपयोग में नियोजित करने का उद्बोध दिया। मुमुक्षुओं के सम्मुख मोक्ष मार्ग को व्याख्यायित करने वाली प्रमुखाश्रीजी ने समस्या के मकड़जाल में उलझे गृहस्थ को सुलझने के सुगम उपाय बताए। दिग्रभ्रमित श्रावक को संबोध देकर संघ और संघपति के प्रति आस्था को सुदृढ़ बनाने वाली साध्वीप्रमुखाजी ने बाल ज्ञानार्थियों को अर्हम् ज्ञान का ककहरा भी पढ़ाया।
तेरापंथ टाइम्स को भी उन्होंने अपनी सरस-सुबोध काव्य रचनाओं से समृद्ध किया। अणुव्रत की राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में बहुभाषी राज्यों से आने वाले विद्यार्थियों के सुरों को अपने नैतिक गीतों के बोल देकर वे अत्यन्त प्रसन्नता का अनुभव करती। साहित्य रसिकजन सुदीर्घकाल से उनके काव्यामृत का रसास्वादन करते आ रहे हैं। आचार्य तुलसी की कृतियों के सम्पादन में उनका कर्तृत्व और कौशल उजागर हुआ है। अपने महान व्यक्तित्व से सूरजमलजी छोटीदेवी बैद कुल में जन्मी कन्या कलावती ने कुलगौरव को बहुगुणित और वृद्धिंगत किया।
आचार्यों को संघ की सारणा और वारणा में भरपूर सहयोग देने व उनके श्रम को हल्का कर देने में सक्रिय सहभागी रही प्रमुखाश्री नित साधना के सोपानों का आरोहण करती रही।
उनकी संघभक्ति से अभिभूत संघपतियों ने उन पर अतिरेक कृपा प्रसाद बरसाया। धर्मसंघ के योग और क्षेम में सदैव समर्पित रहने वाली प्रमुखाश्रीजी के सुझाव से वर्ष 1989 में आचार्य तुलसी के सान्निध्य और युवाचार्य महाप्रज्ञ के मार्गदर्शन में मनाए गए ‘योगक्षेम वर्ष’ की पृष्ठभूमि में साध्वीप्रमुखाश्री का परामर्श और परिश्रम रहा।
साध्वीप्रमुखा, महाश्रमणी, संघ महानिदेशिका के पड़ावों को पारकर वे शासनमाता के शिखर स्वरूप में स्वीकारी गई। पराकाष्ठा उस समय लक्षित की गई जब आचार्यश्री महाश्रमणजी ने शासनमाता को दर्शन देते हेतु श्रम, शक्ति और क्षांति की अद्भुत मिसाल प्रस्तुत की। नम्रता के शिखर पुरुष परम पावन आचार्यप्रवर ने अपनी आज्ञानुवर्तिनी मातृस्वरूपा शासन माता को जिस
रूप में दर्शन दिए वह नजारा निहारने वाले हर नर-नारी के नयनों को नम कर देने वाला था।
बाह्य जगत के उनके प्रतिरूप का जितना परिदर्शन हम कर पाते हैं अर्न्तजगत में वे उससे अधिक गम्भीरता और गहनता को लिए हुए आचार्यश्री के ‘रहें भीतर, जिएं बाहर’ के संदेश को सार्थकता प्रदान करती रहीं। उन्होंने सदैव व्यक्ति की अर्न्तनिहित क्षमता से अधिक गुरु के प्रति समर्पण और संध निष्ठा को महत्त्वपूर्ण माना और बताया। तेरापंथ की रीति-नीति और जैनत्व के संस्कारों की सदैव सद्प्रेरणा देने वाली प्रमुखाश्रीजी की विदेह यात्रा गतिमान है। उनकी इस यात्रा के ऊर्ध्वारोहण और लक्ष्य प्राप्ति की मंगल कामना करने वाला श्रावक समाज आज मातृविहीनता का अनुभव कर रहा है। रिक्तता के इन क्षणों को तप, जप और आत्मविकास के उन उद्दीपनों को अपना कर भरें जो प्रमुखाश्रीजी ने हमें प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में प्रेषित किए हैं।
बारम्बार नमन उस दिव्यात्मा को, प्रणाम उस पुण्यात्मा को।