साँसों का इकतारा

स्वाध्याय

साँसों का इकतारा

(67)

 

कल दिवाली थी भले ही घर तुम्हारे

किंतु  मेरे  घर  दिवाली  आज  आई

तम हरण कर प्रात को रोशन किया है

तेज  के  हे  देवते!  तुमको  बधाई॥

 

कल हुई पूजा निहित था स्वार्थ उसमें

आज  है  परमार्थ  की  आभा  सुहानी

कल मिला जो तेज था उत्ताप उसमें

आज है जो चाँदनी उसका न सानी

विषय शब्दों का नहीं यह दिवस पावन

मौन मन की धड़कनें भी बुदबुदाई॥

 

तेल दीयों में भरें क्यों व्यर्थ ही अब

रोशनी  फैली  धरा  पर  एक  अनुपम

फूल कगज के खिलाएँ क्यों धरा पर

महक खुशियों की लिए तुम दिव्य उपवन

लग रही सूनी युगों से बिन तुम्हारे

आज वह दुनिया तुम्हें पा जगमगाई॥

 

(68)

 

हमने अपना सब कुछ किया निछावर अपने मन से।

अब क्या है अवशेष जिसे अर्पण कर तुम्हें रिझाते॥

 

नभ का कर निर्माण तुम्हीं ने दी हैं सबको पाँखें

इसीलिए हर प्राण-विहग तुम पर ही द‍ृष्टि टिकाए

उजली-उजली किरणों ने आलोक भरा नयनों में

सूनी-सी गोदी संध्या की तुम उसमें उदियाये

कदमों की आहट भी मुदित बना देती है सबको

पलकें में बंदी बनकर तुम क्यों जग को भरमाते॥

 

वीरानी राहों में भटक गए हैं चरण हमारे

मिला नहीं सहयोग किसी का अपने हुए पराए

जो प्रकाश का सोता बहता आया पास तुम्हारे

मुड़ जाए इस ओर सहज हम ऐसी ऊर्जा पाएँ

है स्वार्थी संसार समूचा तुम हो उससे ऊपर

मिला तुम्हें जो सत्य उसे क्यों हमसे अजा छिपाते॥

 

इमरत से परिपूर्ण रहा जीवन-घट देव! तुम्हारा

किंतु हमारा भाजन रीता अब तो उसको भर दो

बिलख रही है मूक चेतना उसको मुखर बनाओ

साध्य सिद्ध हो शीघ्र देवते! ऐसा सुंदर वर दो

सागर को पानी पर भी ना बुझती प्यास हमारी

बूँद-बूँद रसपान करा तुम कैसे उसे बुझाते॥