आत्मा के आसपास

स्वाध्याय

आत्मा के आसपास

प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा

जैन-योग में कुंडलिनी

पृष्ठरज्जु में बह रही, सदा सुषुम्ना शाान्त।

ज्ञान-केंद्र ऊपर सुखद, नीचे शक्‍ति नितांत॥

शक्‍ति-केंद्र के पास है, कुंडलिनी का स्थान।

तेजोलेश्या लब्धि या, तैजस-तन अभिधान॥

सुप्त और जागृत उभय, कुंडलिनी के रूप।

योगरसिक नर समझते, इसका सही स्वरूप॥

कुंडलिनी की साधना, बन जाती अभिशाप।

उचित मार्ग-दर्शन बिना, मिलता है सन्ताप॥

इसको जो नर साधता, लगती दीर्घ समाधि।

वृद्धि रुके नख केश की, विगलित आधि-व्याधि॥

द्विविध लब्धि तेजोमयी, विपुल और संक्षिप्त।

सुप्त शक्‍ति संक्षिप्त है, विपुल तेज से दीप्त॥

 

प्रश्‍न : योग का क्षेत्र जाने-अनजाने अनेक रहस्यों का क्षेत्र है। जो साधक गहरे पैठे हैं, उन्होंने अज्ञात रहस्यों को खोजा है, पकड़ा है और अपनी साधना से नए आयामों क उद्घाटन किया है। कुंडलिनी भी योग का एक रहस्यपूर्ण तत्त्व है। जैन आगम इस संबंध में मौन हैं। जैन-योग की द‍ृष्टि से कुंडलिनी शक्‍ति है या नहीं? यदि है तो वह कहाँ है?

उत्तर : जैन आगम साहित्य में कुंडलिनी शब्द का उल्लेख नहीं मिलता। उत्तरवर्ती जो साहित्य तंत्र-शास्त्र या हठयोग से प्रभवित है, उसमे इसका प्रयोग उपलब्ध है। कुंडलिनी एक रहस्य अवश्य है, किंतु जैन आगमों में इसके स्वरूप की विस्तृत चर्चा है। नाम का भेद अवश्य है, पर उसके अस्तित्व को नकारने जैसी कोई बात नहीं है। यौगिक उपलब्धियों में कुंडलिनी को एक शक्‍ति के रूप में स्वीकृति मिली हुई है। जैन-योग में भी वह एक विशिष्ट शक्‍ति के रूप में प्रतिष्ठित है। वहाँ उसका नाम तेजोलेश्या या तेजोलब्धि है।

हमारे शरीर में मुख्य रूप से तीन प्राणप्रवाह हैं। मध्यवर्ती प्राणप्रवाह पृष्ठरज्जु के भीतर सुषुम्ना में प्रवाहित होता है। सुषुम्ना के नीचे शक्‍ति-केंद्र है। सुषुम्ना शीर्ष के ऊपर ज्ञान-केंद्र है। ये दोनों केंद्र सुषुम्नासेतु से जुड़े हुए हैं। शक्‍ति के बिना ज्ञान का विकास नहीं होता और ज्ञान के बिना शक्‍ति का सदुपयोग नहीं होता। इसलिए ये दोनों केंद्र और इनका मध्यवर्ती स्थान शरीर का महत्त्वपूर्ण भाग है। साधना की द‍ृष्टि से सभी साधना-पद्धतियों में इनकी उपयोगिता को स्वीकृत किया गया है। शक्‍ति-केंद्र के पास एक ऐर ऊर्जा-भंडार है। इसी स्थान को कुंडलिनी का स्थान माना जा सकता है। प्रेक्षाध्यान की पद्धति में तेजोलेश्या, तेजोलब्धि और तैजस-शरीरये तीन बहुत रहस्यमय शब्द हैं। कुंडलिनी का रहस्य इन्हीं में खोजा जा सकता है।

तेजोलब्धि के दो रूप हैंसुप्त या निष्क्रिय और जागृत या सक्रिय। जिस समय यह शक्‍ति सुप्त या निष्क्रिय होती है, वृत्तियाँ उदात्त नहीं बन सकती। वृत्तियों के उदात्तीकरण के लिए भी शक्‍ति की अपेक्षा रहती है। शक्‍तिहीन आदमी साधारण काम भी नहीं कर सकता, फिर वृत्तियों के उदात्तीकरण जैसे महान काम तो हो भी कैसे सकता है? तैजस-शक्‍ति के जाग्रत या सक्रिय होने पर उसके उपयोग में बहुत सावधानी बरतने की जरूरत है। विद्युत जब तक तरों में प्रवाहित रहती है, वह गर्मी में ठंडक दे सकती है, सर्दी में ताप दे सकती है, अंधकार में प्रकाश कर सकती है और बड़ी-बड़ी मशीनों को चला सकती है। किंतु तारों के नियंत्रण से बाहर होकर वह अकल्पित नुकसान भी पहुँचा सकती है। इसी प्रकार उचित दिशा में प्रयुक्‍त तैजस-शक्‍ति वरदान बनती है तो उसका गलत दिशा में प्रयोग होने पर वह अभिशाप भी बन सकती है। इस द‍ृष्टि से शक्‍ति-केंद्र के साथ ज्ञान-केंद्र को जाग्रत करना जरूरी है। ऊपर के केंद्र जाग्रत न हो तो नीचे के केंद्रों का जागरण बहुत बड़ा खतरा है। इसलिए इस सारी प्रक्रिया में गुरु का मार्ग-दर्शन आवश्यक है। उचित मार्ग-दर्शन के अभाव में कठिनाइयों की उपस्थिति को टाला नहीं जा सकता।

प्रश्‍न : साधना की द‍ृष्टि से गुरु कैसा होना चाहिए? गुरु की कसौटी पुस्तकीय ज्ञान है? अनुभव का ज्ञान है? अथवा साधना है?

उत्तर : यह ऐसा विषय है, जिसमें पुस्तकीय ज्ञान के आधार पर गुरु की अर्हता का अंकन नहीं हो सकता। साधनाशील अनुभवी व्यक्‍ति ही गुरु की महत्त्वपूर्ण भूमिका को कुशलता से निभा सकता है। जिस प्रकार अनुभवी डॉक्टर की देखरेख में कराई गई चिकित्सा सफल होती है, उसी प्रकार अनुभवी गुरु की सन्‍निधि में की गई साधना ही अनुकूल परिणाम ला सकती है। डॉक्टर दवा देता है और उसका रिएक्शन होने पर, रोग में उभार आने पर उसका प्रतिकार भी जानता है। दवा-जनित प्रतिकूल प्रतिक्रिया को वह दूसरी दवा देकर शांत कर देता है। अनुभवी गुरु भी साधक की शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्थिति का अध्ययन करते रहते हैं। कोई भी प्रयोग उलटा न पड़े, इस द‍ृष्टि से उनकी सतर्कता का बहुत मूल्य है।

प्रश्‍न : योग की कई पुस्तकों में कुंडलिनी का स्वरूप कुंडली मारकर बैठी हुई सर्पिणी से उपमित किया गया है। आपने इस संदर्भ में जिस तैजस-शक्‍ति का निरूपण किया, क्या वह भी इसी रूप में है?

उत्तर : सर्पिणी एक रूपक है। जिस प्रकार साँप टेढ़ा-मेढ़ा चलता है, वैसे ही हमारी सुषुम्ना नाड़ी का आकार टेढ़ा-मेढ़ा है। सर्पिणी जब कुंडली की अवस्था में रहती है, तब शांत रहती है, हमारी तैजस-शक्‍ति भी निष्क्रिय या सुप्त रहती है, तब उसकी वही स्थिति होती है। सर्पिणी को छेड़ दिया जाए और वह क्रुद्ध हो जाए तो बड़ी खतरनाक प्रमाणित होती है। इसी प्रकार शक्‍ति जब ऊपर की ओर ऊर्ध्वारोहण करती है, तब उसे सही रास्ता नहीं मिलता है तो वह कष्टकर हो जाती है। तैजस-शक्‍ति का प्रवाह यदि दाएँ और बाएँ चला जाता है तो दाह जैसी प्राणघातक बीमारियाँ उत्पन्‍न हो जाती हैं। साधक को शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के खतरों से जूझना पड़ता है। कभी-कभी इससे पागलपन भी आ जाता है। इसलिए कुंडलिनी को साधते समय अथवा तैजस-शक्‍ति को ऊपर ले जाते समय बहुत सावधानी की अपेक्षा रहती है।

तैजस-शक्‍ति एक प्रकार की ऊर्जा है। वह भोजन करने से उत्पन्‍न होती है। तैजस-केंद्र भी प्राण-ऊर्जा का उत्पादक है। तैजस-शरीर से जो विकिरण होते हैं, उनसे प्राणधारा सक्रिय होती है। हठयोग में शरीर की जिस शक्‍ति को कुंडलिनी कहा है, वह जैन-योग की तैजस-शक्‍ति ही है।