आशा... जो अधूरी रह गई

आशा... जो अधूरी रह गई

17 मार्च, 2022 के दिन जैसे ही इस अनचाही सूचना ने कानों में दस्तक दीशासनमाता हमारे बीच नहीं रही, सुनते ही एक बार तो सांसे रुक गई। मन को विश्वास नहीं हुआ- क्या यह सच है? कुछ सप्ताह पूर्व जिस अमृतायन में खुशियों का माहौल था। अमृतायन की हर दिवार उनके कर्तृत्व और व्यक्‍तित्व को बयां कर रही थी। जैन विश्‍व भारती का पूरा परिसर शासनमाता के जयकारों से गूंज उठा था। क्या वह विराट व्यक्‍तित्व हमारी आंखों से ओझल हो गया? नहीं-नहीं! प्रकाश कभी बुझता नहीं, हवा कभी थमती नहीं, आकाश कभी तिरोहित नहीं होता, वैसे ही महाश्रमणी साध्वी प्रमुखाश्रीजी के जीवन के उजले पृष्ठों को समय की प्रचंड धारा कभी मिटा नहीं सकती। उनके तेजस्वी जीवन की आभा कभी मंद नहीं पड़ सकती।

उनके व्यक्तित्व का हर पहलू हमें प्रेरित करता है, विद्वता प्रभावित करती है, विनम्रता रोमांचित करती है, अनंत ऊर्जा हमारे भीतर उत्साह का संचार करती है और अप्रमत्तता हमें विस्मित करती है। हमने अनुभव किया- स्वयं वेदना ने उनकी अप्रमत्तता को सलाम कर लिया। वेदना के क्षणों में उन्होंने दूसरों की वेदना को सहलाया। अपनी वेदना को गौण कर दूसरों की समस्या का समाधान किया। ‘वेद पढ़ना आसान है किंतु दूसरों की वेदना को पढ़ना बहुत कठिन कार्य है।’ महाश्रमणीजी ने इस कठिन कार्य को भी बहुत सहजता से संपादित किया। हम सबको बोध पाठ मिला कि वेदना को कैसे सहन करना चाहिए।

वे चाहे स्वस्थ हो या अस्वस्थ, उनके जीवन का एक भी दिन ऐसा नहीं गया जहां प्रात: काल समय पर स्वाध्याय का क्रम प्रारंभ न हुआ हो। जब साध्वियों का वाचन प्रारंभ होता तब दूसरों को यह अहसास नहीं होता कि आप किसी गंभीर बीमारी से जूझ रही हैं। सारे कार्य नियमित चलते। अंगुलियों में थमी लेखनी निर्बाध गति से चलती रहती। शारीरिक कठिनाई उसे रोक नहीं सकी। इसी कारण उन्होंने संघ भाल पर साहित्य सर्जन का कीर्तिमान रच दिया। उन्होंने कितने रुके चरणों की गतिमान बनाया। रुकी अंगुलियों को विकास का पथ दिया। निराश मानस में आशा का संचार किया। महाश्रमणीजी की अनुकंपा ने मुझे भी समय-समय पर विकास का आकाश दिया।

22 जनवरी सन् 2019 का घटना प्रसंग है। रात्रिकालीन अर्हत वंदना के बाद हम सभी साध्वियां महाश्रमणीजी की सन्‍निधि में बैठी थी। महाश्रमणीजी ने साध्वीश्री राजीमतीजी की आत्मकथा के लिए पुरोवाक् लिखा। वह हम सब साध्वियों को सुनाया। पुरोवाक् लिखने की चर्चा चल रही थी। अचानक साध्वी प्रमुखाश्रीजी ने फरमाया यदि विमलप्रज्ञाजी अपनी आत्मकथा लिखें तो हम उसमें अपना पुरोवाक् अवश्य देंगे। मेरा रोम-रोम  कंपित हो गया। मैंने निवेदन किया- यदि आपका आशीर्वाद होगा तो अवश्य ही मैं इस कार्य को सफल कर पाऊंगी। मैंने कार्य प्रारंभ कर दिया। कार्य संपन्‍नता की ओर था। अचानक समीक्षा परिषद में यह निर्णय हुआ अवस्था के 72 वर्ष पूरे हुए बिना आत्मकथा बाहर नहीं आ सकती। मैंने सोचा- छापर चतुर्मास में मेरा यह कार्य हो जाएगा। किसने सोचा यह विराट व्यक्तित्व हमारी आंखों से ओझल हो जाएगा। मेरी आशा अधूरी रह जाएगी।