शासनमाता की बहुश्रुतता से सभी को बहुश्रुत बनने की प्रेरणा मिलती रहे : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

शासनमाता की बहुश्रुतता से सभी को बहुश्रुत बनने की प्रेरणा मिलती रहे : आचार्यश्री महाश्रमण

अध्यात्म साधना केंद्र, 18 मार्च, 2022

संयम के सुमेरू आचार्यश्री महाश्रमण जी जिस लक्ष्य से दिल्ली उग्र विहार करके पधारे थे, वो लक्ष्य उनका पूरा हुआ। अंत समय तक आपश्री ने शासनमाता को चित्त-समाधि पहुँचाकर तीसरा मनोरथ भी पूरा करवा दिया। ऐसे अनुशास्ता का चतुर्विध धर्मसंघ गौरवपूर्ण वर्धापना करता है। भावना यही है कि हर जन्म में हमें ऐसे धर्मगुरु प्राप्त हों। द‍ृढ़-संकल्प बल के धनी आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल प्रेरणा पाथेय प्रदान कराते हुए फरमाया कि एक महत्त्वपूर्ण चिंतन का विषय है कि मेरा इहलोक हित भी हो और परलोक का भी हित हो, सुगति प्राप्त हो। यह कैसे संभव हो सकता है? इसके लिए क्या करना चाहिए?

इहलोक यानी वर्तमान मनुष्य जीवन में भी हित हो और आगे जहाँ भी जाना हो, वहाँ भी हित हो। मेरी सुगति हो। इसके लिए दसवैआलियं आगम में आगमकार ने बताया है कि बहुश्रुत की पर्युपासना करो। साधु जो खुद त्यागी, संयमी और ज्ञानी भी है। बहुश्रुत साधु की पर्युपासना करो, उनसे पूछो कि मेरी सुगति कैसे हो सकती है। बहुश्रुत जो रास्ता बताए उस पर ध्यान दो। अध्यात्म की बात वे बता सकते हैं। आत्मा-परमात्मा के बारे में वे बता सकते हैं।

बहुश्रुत बहुत बड़ा ज्ञानी होता है। हमारे धर्मसंघ में बहुश्रुत परिषद स्थापित की गई है। उसके सप्त सदस्य होते हैं, पर आज की दिनांक में छ: ही हैं। बहुश्रुत ज्ञान से भी होते हैं, कुछ पदेन भी होते हैं। कल का दिन फाल्गुन शुक्ला चतुर्दशी चातुर्मासिक पक्खी का एवं होली का दिन था। हमारे धर्मसंघ में एक प्रसंग बन गया, जो एक इतिहास का विषय भी बन गया। जो कुछ विशिष्ट व्यक्‍तित्व होते हैं, उनकी बात विशिष्ट भी हो सकती है। हमारे धर्मसंघ के साध्वीप्रमुखा पद पर आसीन महाश्रमणी कनकप्रभा जी का कुछ अर्से के संघर्ष के बाद महाप्रयाण हो गया। मानो जीवन और मृत्यु के बीच युद्ध चल रहा था। कई दिनों तक जीवन ने मृत्यु को पछाड़ने का प्रयास किया था। पर आखिर मृत्यु ने विजय प्राप्त की और जीवन समाप्ति को प्राप्त हो गया।

हमारे संघ महानिर्देशिका, असाधारण साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी जो शासनमाता सम्मान से महिमामंडित थी, उनका कालधर्म कल प्रात: हम लोगों की उपस्थिति में हो गया, ऐसा ज्ञात हुआ। साध्वीप्रमुखाजी एक पदेन बहुश्रुत परिषद की सदस्या थी। उनका अपना अध्ययन भी था। उनको एक स्मंतउंज च्मतेवद के रूप में मैं देखता हूँ। उनका बहुश्रुतत्त्व इस रूप में देखता हूँ कि वे पारमार्थिक शिक्षण संस्था में रही। केलवा में तेरापंथ द्विशताब्दी के अवसर पर वि0सं0 2017 अषाढ़ी पूर्णिमा को गुरुदेव तुलसी के मुखकमल से उनकी साध्वी दीक्षा संपन्‍न हुई। वे संयम पर्याय के सातवें दशक में थी। 62वें वर्ष में चल रही थी। जितना मैंने उनको देखा, संस्कृत भाषा का उनका अच्छा अभ्यास था। तत्त्व-ज्ञान, आगम ज्ञान का भी उन्हें ज्ञान था। गुरुदेव तुलसी का उन्हें साध्वी जीवन और साध्वीप्रमुखा के रूप में सान्‍निध्य मिला था। प्राय: वो उनके साथ ही रही थी। उनके निकट रहकर श्रुत लेखन, ज्ञान अर्जन का उनको मौका मिला।

भगवती की जोड़ जैसे विशाल ग्रंथों का उन्होंने गुरुदेव तुलसी के सान्‍निध्य में संपादन किया था। हिंदी भाषा पर भी उनका अच्छा विकास था। यदा-कदा वे हिंदी में कविताएँ बनाकर फरमाती। गुरुदेव तुलसी के कितने साहित्य का उन्होंने संपादन किया। अंग्रेजी भाषा का भी उन्होंने ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास किया था। ज्ञान अनंत है, तारतम्य हो सकता है। भाषण भी अच्छा देती थी। वे एक बहुश्रुत साध्वी-निर्ग्रन्थीं थी। अध्ययन-अध्यापन का क्रम भी चलता था। यदा-कदा हमारे पास चिंतन गोष्ठियाँ होतीं, उसमें वो विराजती थी। गुरुदेव तुलसी के समय अंतरंग परिषद होती तो उसमें हम चार होते थेगुरुदेव तुलसी, युवाचार्य महाप्रज्ञ, महाश्रमणी कनकप्रभा और महाश्रमण मुदित कुमार। गुरुदेव तुलसी ने मुझे भी वो एक सम्मान दिया था।

ऐसे ज्ञानवान से कुछ पूछा जाए तो वे अपना मंतव्य भी बताती थी। ज्ञान के साथ स्थान-पद का भी महत्त्व होता है। शासनमाता ने जितना साहित्य सृजन और संपादित किया वो महत्त्वपूर्ण है। श्रावक-श्राविकाओं को भी संभालती थी। शास्त्रकार ने कहा कि सुगति कैसे मिले इस बारे में बहुश्रुत से पूछना चाहिए। अर्थ का विनिश्‍चय करना चाहिए। हमारे धर्मसंघ में अनेक चारित्रात्माएँ हैं, जिनका ज्ञान-अध्ययन अच्छा है, परंतु जो स्थापित होते हैं, बहुश्रुत परिषद के सदस्य हैं। हमारे धर्मसंघ की एक बहुश्रुत परिषद सदस्या को खो दिया। नियति का नियम है, उसको टालना भी मुश्किल है। डॉक्टर उपाय कर सकते हैं, पर एक दिन तो अवसान को प्राप्त होना ही होता है।

उनके जीवन का नौवाँ दशक और साध्वीप्रमुखा का 51वाँ वर्ष चल रहा था। हमारे धर्मसंघ में पहली साध्वीप्रमुखा हुई हैं, जिन्होंने छठे दशक में प्रवेश कर लिया। लाडनूं जैविभा में उनके 50 वर्षों की संपन्‍नता के दिन साध्वीप्रमुखा अमृत महोत्सव भी उनकी विद्यमानता में हमने मनाया था। यह हमारे धर्मसंघ का अद्वितीय अवसर था कि किसी साध्वीप्रमुखा को इतना लंबा काल मिला हो। तीन पीढ़ियों के साथ वो रही हैं। हमारी लंबी पूर्वांचल और दक्षिणांचल की यात्रा में वो साथ रही थी। अच्छा यह भी हुआ कि हमने उनका अध्यात्म साधना केंद्र में विराजने का निर्णय कर लिया। धर्म के माहौल में रहने का मौका मिल गया। उनका ज्ञान, अध्ययन, कवित्व उनकी विशेषताएँ थी। वे साध्वी के रूप में हमारे धर्मसंघ में आई और साध्वीप्रमुखा व अनेक अलंकरणों से, विशेषणों से वे अलंकृत थीं। सम्मानित की गई थीं।

हमारे धर्मसंघ में अनेक रूपों में उन्होंने सेवा दी थी। सेवा करके अंतिम समय में भी उनको स्वाध्याय करने का मौका मिला। कल प्रात: शासनमाता विदा हो गई। उनकी आत्मा परम की दिशा में आगे बढ़े। वो बहुश्रुत थी तो औरों को बहुश्रुत बनने की, ज्ञानी बनने की प्रेरणा मिलती रहे, मंगलकामना है। शासनमाता की स्मृति सभा में मुनि ॠषभकुमार जी, मुनि हितेंद्र कुमार जी, मुनि नयकुमार जी, मुनि गौरवकुमार जी, मुनि शुभंकर जी आदि एवं साध्वी शीलप्रभा जी, साध्वी कार्तिकप्रभाजी, साध्वी प्रबुद्धयशाजी, साध्वी कमनीयप्रभाजी, साध्वी सार्थकप्रभाजी, समणी सत्यप्रज्ञाजी, समणी रोहिणीप्रज्ञा जी ने अपने भावों द्वारा अभिव्यक्‍ति दी। संजय बबीता भानावत, प्रतिमाधारी श्रावक धनराज बैद, आरती जैन, किशनलाल डागलिया, पूनमचंद छाजेड़ ने भी शासनमाता की स्मृति में अपने भावों की अभिव्यक्‍ति दी। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।