आत्मा के आसपास

स्वाध्याय

आत्मा के आसपास

आचार्य तुलसी

प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा

आध्यात्मिक विकास के लिए अनुपम अवदान

प्रश्‍न : कोई साधक साधना के विशेष प्रयोग करना चाहता हो और ध्यान आदि के द्वारा होने वाले वृत्तियों के उभार से बचना चाहता हो, उसे किस चौतन्य-केंद्र पर ध्यान करना चाहिए?
उत्तर : हृदय के आसपास एक चौतन्य-केंद्र है। उसका नाम है-आनंद-केंद्र। वह भाव का प्रतिनिधि केंद्र है। मस्तिष्क की चेतना और हृदय की चेतना-ये दो बहुचर्चित शब्द हैं। मस्तिष्क का संबंध तर्क और हृदय का संबंध भावना से है। ज्ञान-केंद्र के जाग्रत होने से व्यक्ति तार्किक बनता है और आनंदकेंद्र की जागृति से श्रद्धा का विकास होता है। वैसे चेतना का सीधा संबंध मस्तिष्क से माना जाता है, पर हमारी अंतश्‍चेतना का संबंध ग्रंथि-तंत्र से भी है। हमारी भावधारा उसी के माध्यम से व्यक्त होती है। भावनाओं के साथ हमारी हृदय चेतना का गहरा संबंध है। हमारा हृदय सुख या दु:ख के संवेदनों को बहुत जल्दी पकड़ता है। हृदय और उसके आसपास का पूरा क्षेत्र आनंद-केंद्र से प्रभावित है। कुछ लोग इसे हृदय-चक्र भी कहते हैं। हठयोग में इसे अनाहत-चक्र कहा जाता है। मंत्रों के जप के साथ इस केंद्र पर ध्यान केंद्रित करना बहुत उपयोगी उपक्रम है। इसके माध्यम से कुछ विशिष्ट साधनाएं भी की जा सकती हैं। नीचे के केंद्रों पर ध्यान करने से जिन कठिनाइयों या खतरों की संभावना रहती है, उन्हें यहां थोड़ा भी अवकाश नहीं रहता। इस द‍ृष्टि से आनंद-केंद्र ध्यान के लिए विशिष्ट किंतु सुविधाजनक केंद्र है।
प्रश्‍न : अनाहत-चक्र के आसपास मणिपूर-चक्र का उल्लेख भी मिलता है। वह चक्र कहां है? उसका काम क्या है? और उसे किस चैतन्य केंद्र का स्थानापन्‍न माना जा सकता है?
उत्तर : हठयोग में जिसे मणिपूर-चक्र कहा जाता है, प्रेक्षा-ध्यान में उसे तैजसकेंद्र माना गया है। शरीर-शास्त्र की द‍ृष्टि से वह उपवृक्‍कग्रंथियों (एड्रिनल ग्लैण्ड्स) का स्थान है। नाभि के आसपास का स्थान है यह। इसे प्राण-शक्ति का उत्पादक केंद्र कहा गया है। शरीर-शास्त्रियों ने भी शक्ति-संचार की द‍ृष्टि से उपवृक्‍क ग्रंथियों को ही उत्तरदायी ठहराया है। कुछ विशेष स्थितियों में इन ग्रंथियों से विशिष्ट स्त्राव होते हैं, जो अकल्पित शक्ति बढ़ा देते हैं। तैजस-केंद्र पर ध्यान करने से प्राण-शक्ति का विकास होता है। साधना की द‍ृष्टि से तैजस की आपूर्ति करने का यह मुख्य स्रोत है। तैजस वह क्षेत्र में विशेष प्रयोग कर सकता है और न ही उसमें सफल हो सकता है। वैसे तो तैजस ऊर्जा हमारे पूरे शरीर में है। फिर भी उसके कुछ मुख्य केंद्र हैं, जिसमें नाभि का पृष्ठभाग महत्त्वपूर्ण है। इस स्थान पर ध्यान करने से ऊर्जा का विकास होता है और शेष चौतन्य केंद्रों के जागरण में उस शक्ति का उपयोग किया जा सकता है।
प्रश्‍न : आपने जितने चैतन्य केंद्रों की अब तक चर्चा की है, वे सब नाभि से ऊपर-ऊपर हैं। कुछ लोगों का अभिमत है कि नाभि से ऊपर के केंद्र ही ध्यान के लिए उपयोगी हैं। नीचे के केंद्रों पर ध्यान करने में काफी खतरों की संभावना है। क्या यह बात सही है? नाभि के नीचे कौन-से चौतन्य-केंद्र है? उन पर ध्यान करना चाहिए या नहीं?
उत्तर : चैतन्य-केंद्रों का मुख्य संबंध हमारी पृष्ठरज्जु और शरीर के कुछ विशिष्ट अंगों से है। शरीर में जितने चैतन्य-केंद्र हैं, वे सब अब तक भी ज्ञात नहीं हो पाए हैं। शरीर-शास्त्रियों को तो और भी कम केंद्रों की जानकारी है। फिर भी यह बात सही है कि नाभि से ऊपर के केंद्र विशद होते हैं। सामान्यत: दीर्घकाल तक ध्यान के प्रयोग इन्हीं केंद्रों पर करवाए जाते हैं। नीचे जो केंद्र हैं, वे अविशद हैं। प्रेक्षा-ध्यान की प्रक्रिया में अभी तक नाभि के नीचे दो केंद्रों पर ध्यान का प्रयोग करवाया गया है। वे केंद्र हैं- स्वास्थ्य केंद्र और शक्‍ति-केंद्र।
पेडू के पास जो चैतन्य-केंद्र है, वह स्वास्थ्य केंद्र है। हठयोग में इसे स्वाधिष्ठानचक्र कहा जाता है। शरीर-शास्त्र की भाषा में यह क्षेत्र कामग्रंथियों (गोनाड) से प्रभावित है। ब्रह्मचर्य की द‍ृष्टि से इसका बहुत मूल्य है। अभी तक शरीर-शास्त्र के क्षेत्र में ब्रह्मचर्य
और स्वास्थ्य का संबंध पूर्ण रूप से ज्ञात नहीं हो पाया है। किंतु अध्यात्म के आचार्यों ने इस पर बहुत ध्यान दिया। उन्होंने जिन रहस्यों का पता लगाया है, उनके अनुसार ब्रह्मचर्य साधना और स्वास्थ्य दोनों द‍ृष्टियों से एक विशिष्ट प्रयोग है। ऊर्जा की प्राप्ति और सुरक्षा में इसका जो उपयोग है, वह बहुत महत्त्वपूर्ण है।
स्वास्थ्य केंद्र से नीचे शक्ति-केंद्र है। हठयोग के अनुसार इसका नाम है-मूलाधार। यह सबसे निम्नवर्ती या आधारभूत केंद्र है। सुषुम्ना या नाड़ी-संस्थान के साथ इसका संबंध है। तैजस-केंद्र में जो शक्ति उत्पन्‍न होती है, उसका भंडारण शक्ति केंद्र में होता है। इस द‍ृष्टि से इसे ऊर्जा-केंद्र भी कहा जा सकता है। हमारे मस्तिष्क को जिस विद्युत या शक्ति की अपेक्षा होती है, उसकी आपूर्ति में यही केंद्र सहयोगी अंतर्यात्रा में चित्त को शक्ति-केंद्र से ज्ञान-केंद्र तक की यात्रा करवाई जाती है। उसका यही तो उद्देश्य है। उस यात्रा में हमारा चित्त शक्ति का वाहक बनकर उसे ज्ञान-केंद्र अर्थात मस्तिष्क तक पहुंचाता रहता है। इस प्रकार ये सभी चैतन्य-केंद्र हर शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य तथा आध्यात्मिक विकास के लिए अनुपम अवदान हैं।
नाभि के पृष्ठभाग में तैजस-केंद्र, पेडू के पास स्वास्थ्य-केंद्र और उसके नीचे जो शक्ति-केंद्र है, वे आध्यात्मिक विकास की द‍ृष्टि से इतने महत्त्वपूर्ण नहीं हैं, पर शारीरिक। द‍ृष्टि से उनकी उपादेयता है। तैजस प्राण-शक्ति का केंद्र है, इसलिए वह जीवनयात्रा के लिए जरूरी है। स्वास्थ्य-केंद्र और शक्ति-केंद्र पर ध्यान करना जरूरी नहीं है। सामान्यत:। आनंद-केंद्र से ऊपर ध्यान करना चाहिए। प्रारंभिक अवस्था में नीचे के केंद्रों पर भी ध्यान आवश्यक है। दर्शन-केंद्र और ज्योति-केंद्र सक्रिय हो जाएं तो निम्नवर्ती केंद्रों पर ध्यान की अपेक्षा ही नहीं है। किस साधक को किस स्थिति में किन चौतन्य-केंद्रों पर ध्यान करना चाहिए? इस संदर्भ में अनुभवी व्यक्तियों का मार्ग-दर्शन लेते रहना चाहिए।
प्रश्‍न : कुछ लोग वर्षों से ध्यान कर रहे हैं और कुछ साधक नए-नए हैं। चैतन्य-केंद्रों का जागरण जल्दी किसके होता है? तथा क्या साधक को यह स्पष्ट अनुभव हो जाता है कि उसके चैतन्य-केंद्र सक्रिय हो गए हैं?
उत्तर : चैतन्य-केंद्रों के जागरण में समय की कोई नियामकता नहीं है। कुछ साधक दीर्घकालीन अभ्यास के बाद भी अपने भीतर किसी प्रकार के बदलाव का अनुभव नहीं करते। उनके चैतन्य-केंद्र भी सप्त ही रहते हैं। कुछ ऐसे साधक भी होते हैं, जो बहुत थोड़े समय में ही आगे बढ़ जाते हैं। उनमें इतना रूपांतरण घटित हो जाता है कि स्वयं उन्ह भी अपने आप पर विश्वास नहीं होता। प्रारंभिक स्थिति में चैतन्य-केंद्रों की सक्रियता या निष्क्रियता का प्रत्यक्ष अनुभव तो किसी को नहीं होता, पर यह निश्‍चित है कि मानसिक और बौद्धिक विकास, स्वार्थवृत्ति का हास, ऊर्ध्वमखी वत्तियां, व्याक्तत्व उदात्तीकरण, मानसिक उलझनों तथा बीमारियों का समाधान आदि ऐसी घटनाए हैं, जो चैैतन्य-केंद्रों की सक्रियता का पुष्ट प्रमाण है।

(क्रमश:)