साँसों का इकतारा

साँसों का इकतारा

(63)

बहुत दूर मंजिल थी मैं अनजाने पथ में हारी।
तभी तुम्हारे संकेतों ने सोई शक्‍ति उभारी।

अंतहीन इन इच्छाओं ने दिखलाई मृगमाया
दुनियावी आकर्षण ने फिर अनचाहे अटकाया
सिसक रही मेरे जीवन की साँसें जब सूनी-सी
सघन निराशा ने आकर मन पर अधिकार जमाया
मंजिल का अनुमान लगाकर चलना था जब भारी॥

समय सुहाना मस्त जिंदगी देखा स्वप्न अनूठा
पता नहीं क्यों अनायास ही मीठा सपना टूटा
किया बहुत आयास किंतु ना जुड़ पाया वह धागा
हुई सफलता दूर दूरतर साथ धैर्य का छूटा
झाँक रही दिल की धड़कन से जब कमजोरी सारी॥

कल्पित आशंका ने मुझको कई बार दहलाया
तुमने ही देकर आश्‍वासन भय का भूत भगाया
अनजानी राहों में जब आ सघन तिमिर ने घेरा
नहीं किसी ने कभी सफर में पल भर साथ निभाया
झंझा के झोंकों से जब मुरझाई जीवन-क्यारी॥

(64)

गीत की अनुगूंज पहली दी सुनाई।
धरा है पुलकित गगन से मेघ बरसा॥

हो गया मौसम सुहाना स्वयं औचक
महक भर दी पवन में किसने अजाने
भाग्य की अनुकूलता से हो गए सच
आज तक देखे हुए सपने सयाने
मिला है नरलोक को वरदान ऐसा
जिसे पाने के लिए सुरलोक तरसा॥

आ गए हैं प्राण वीणा के सुरों में
कर रहे आकृष्ट कुदरत के नजारे
खिल रहे चेहरे किसी अज्ञात सुख से
चमकते हैं यामिनी में ज्यों सितारे
अधर-संपुट हो गया है धन्य जब से
नाम मंगलमय तुम्हारा देव! परसा॥

सुन रहे तुमको सभी तल्लीन होकर
बोल कोलाहल अपर का लग रहा है
विलक्षण आलोक नयनों से निकलता
दीप धरती का गगन को ठग रहा है
संघ-उपवन में खिली आभा अलौकिक
देख उसको चित्त क्या हर रोम हरसा॥

(क्रमश:)