महाश्रम के पर्याय बनें युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

महाश्रम के पर्याय बनें युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण

तेरापंथ, भिक्षु और तेरापंथ का संविधानइसे एक त्रिपदी के रूप में देखा जा सकता है। जहाँ तेरापंथ धर्मसंघ का नाम आता है तुरंत ध्यान जाता है एक गुरु एक विधान, मर्यादा और अनुशासन पर। और इस धर्मसंघ में व्याप्त सेवा भावना मानस पटल पर आती है। तेरापंथ एक ऐसा धर्मसंघ है जहां गुरु और गुरु इंगित को ही सर्वोपरि माना जाता है जहां मर्यादा और अनुशासन को प्रमुखता दी जाती है और जहां सेवा के संस्कार जन्म घुट्टी में दिए जाते हैं। यहाँ संघ का हर सदस्य सेवा देने के लिए आतुर रहता है, उसके पीछे कारण है गुरु का आशीर्वाद और वात्सल्यपूर्ण नेतृत्व। आचार्य प्रवर ने साध्वीप्रमुखा मनोनयन के 50 वर्षों की संपन्‍नता पर आयोजित अमृत महोत्सव कार्यक्रम में साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी को ‘शासनमाता’ का अलंकरण प्रदान कर उन्हें सम्मानित किया था और आज का यह दिन देखकर ऐसा लग रहा था कि शासन के सरताज भी शासनमाता के प्रति नतमस्तक है। शासनमाता सहित पूरे संघ को चित्त-समाधि प्रदान करना ही आचार्य प्रवर का लक्ष्य है। शासनमाता साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभाजी के अस्वस्थता के समाचार मिलने के पश्‍चात आचार्य प्रवर द्वारा किया गया प्रलंब विहार इतिहास के पन्‍नों में अंकित हो गया। आने वाले वर्षों में जब कभी भी सेवा का प्रसंग आएगा, आचार्य महाश्रमण द्वारा किया गया महाश्रम स्मृति पटल पर उभर आएगा। आज न केवल तेरापंथ धर्मसंघ में बल्कि जैन जैनेतर समाज में भी इस महाश्रम की चर्चा हो रही है। गर्व होता है कि ऐसे धर्माचार्य पर जिन्हें साध्वीप्रमुखा के अस्वस्थता के समाचार मिलने के पश्‍चात् दिल्ली पहुंचना ही अपना एकमात्र लक्ष्य बना लिया। आचार्य प्रवर ने श्रावकों की कोमल भावनाओं को भी गौण नहीं किया। रतननगर, चुरु, टमकोर आदि पूर्व निर्धारित क्षेत्र जिन्हें दिल्ली जल्दी पहुंचने के लिए छोड़ना पड़ रहा था। जब श्रावकों की भावना को ध्यान में रखते हुए आचार्य प्रवर ने इन क्षेत्रों को परसना स्वीकार किया और स्वयं 30 किलोमीटर से अधिक विहार को तैयार हो गए यानी गुरुदेव दूसरों के दु:ख-दर्द को मिटाने के लिए स्वयं कष्ट झेलने के लिए सदा तत्पर रहते हैं। यह है आचार्य महाश्रमण की करुणा, गुरु का शिष्य के प्रति वात्सल्य भाव। झुंझुनू के बाद तो आचार्य प्रवर ने विहार के नव कीर्तिमान स्थापित कर दिया। प्रतिदिन सुबह-शाम विहार कर 32, 36, 35 और 47 किलोमीटर का अंतिम दिन का विहार तो मानो अचंभित करने वाला था। आचार्य प्रवर ने इस विहार के दौरान विश्राम करना तो दूर, आहार पानी को भी गौण कर दिया। युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी को अत्यधिक सम्मान देते हैं। उनके इस सम्मान को देखकर शासनमाता भी स्वयं को अभिभूत महसूस करती हैं कि कैसे धर्मसंघ के सरताज उन्हें वंदन करते हैं और उन पर कृपा करवाते हैं। प्रमुखाश्री जी के लिए आचार्य प्रवर के इस सम्मान के प्रति संपूर्ण धर्मसंघ नतमस्तक है। तेरापंथ धर्मसंघ के इतिहास में आचार्यों द्वारा ऐसे प्रलंब विहार का उदाहरण नहीं मिलता। आचार्य प्रवर ने राजस्थान के थली क्षेत्र के रेतीले टीलों से लेकर हरियाणा की सड़कों को तीव्र गति से नापते हुए शासनमाता को दर्शन प्रदान कर ही विराम लिया। फौलादी संकल्प के धनी आचार्यश्री महाश्रमण ने अहिंसा यात्रा के अंतिम पड़ाव दिल्ली पहुंचकर नव कीर्तिमान रच दिया। धर्मसंघ की आचार्य परंपरा में 5 दिन में 177 किलोमीटर की यात्रा का प्रथम अवसर है और इस यात्रा का उद्देश्य था शासनमाता को दर्शन देना और चित्तसमाधि प्रदान करना। सचमुच में ऐसे आचार्य सौभाग्य से प्राप्त होते हैं। हम सौभाग्यशाली हैं कि हमें ऐसा तेजस्वी धर्मसंघ और महाप्रतापी संघपति मिले हैं। अटूट संकल्प के धनी आचार्य प्रवर ने 6 तारीख को प्रात: विहार प्रारंभ किया, तब दिल्ली 47 किलोमीटर दूर थी, हर किसी के मन में यही चिंता थी कि आज अस्पताल पहुंचना कैसे संभव होगा? परंतु चरैवेति-चरैवेति का सूत्र लिए चिंतामणि सरीखे महातपस्वी आचार्यप्रवर ने शाम 6 बजे से पूर्व दिल्ली के बालाजी हॉस्पिटल में प्रवेश कर ही लिया। आचार्य प्रवर जैसे ही हॉस्पिटल पधारे, मानों संपूर्ण श्रावक समाज उनकी बाट निहार रहा था और पूरा वातावरण जय-जय ज्योति चरण के नारों से गुंजायमान हो गया। आचार्य प्रवर जब शासनमाता के कक्ष में पहुंचे तो ऐसा लग रहा था कि एक पुत्र अपनी मां से मिलने आया है और शासनमाता के चेहरे पर अलग ही चमक दिखाई दे रही थी, हो भी क्यों नहीं आज तो उनकी मनोकामना पूर्ण हो गई है। आचार्य प्रवर ने शासन माता को वंदन कर स्वास्थ्य के बारे में जानकारी ली, कुशलक्षेम पूछा। यह अद्वितीय द‍ृश्य सामने देखकर वहां उपस्थित सभी की आंखें सजल हो रही थी।
शासनमाता के कक्ष में पहुंचकर वंदन करते समय शायद उनके मनोभाव यही होंगे कि चिंता मत करो मां! अब मैं आ गया हूँ। आचार्य प्रवर की इस यात्रा के बारे में साध्वीप्रमुखाजी ने जब जाना तो उन्होंने भी अपनी भावनाएं एक पत्र के माध्यम से निवेदन की जो इस प्रकार है

1 दिन में तीन-तीन, चार-चार बार विहार करना इतिहास की दुर्लभ घटना है। लगातार 1 सप्ताह तक इतने लंबे विहार कर आपने मेरे पर भारी कृपा की है और तेरापंथ धर्म संघ में नया इतिहास बनाया है। प्रभो! आपका यह महाश्रम मेरे लिए कल्याणकारी बने, मेरी आत्मा का उद्धार करने में परम उपकारी बने।
शेष-अशेष गुरु चरणों में समर्पण
आपकी शरण है
आपका आधार है
गुरुदेव के कालजयी पुरुषार्थ के प्रति मंगल कामना करती हूं कवि की इन पंक्तियों के साथ
यह चरण नहीं रुक पाएंगे
पलके सागर झुक जाएंगे
युग के हिमगिरी गल जाएंगे
रवि शशि के रथ रुक जाएंगे
यह चरण नहीं रुक पाएंगे
यह चरण नहीं रुक पाएंगे।
यह कविता गुरुदेव के चट्टानी संकल्प का संकेत है। गुरुदेव का जीवन परम पुरुषार्थ की जीवंत कहानी है। आचार्य महाश्रमण बोलकर नहीं सबको जीकर श्रम की प्रेरणा देते हैं। हम भी गुरुदेव के पदचिह्नों का सहारा लें, श्रम के पथिक बन संघ की सेवा करते रहें, बस यही काम्य है।