आत्मा के आसपास

स्वाध्याय

आत्मा के आसपास

आचार्य तुलसी

प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा

चैतन्य-केंद्रों का जागरण : भाव-तरंगों का परिष्कार

(पिछला शेष) चाक्षुष केंद्र को मस्तिष्क की खिड़की कहा जा सकता है। इसका काम हैभावतरंगों का परिष्कार और मानसिक शांति का विकास। जब तक चैतन्य-केंद्र स्वयं निर्मल नहीं बनता है, तब तक वह भावधारा को भी प्रभावित नहीं कर पाता। इस द‍ृष्टि से चाक्षुष केंद्र पर ध्यान करने से द‍ृष्टि की निर्मलता तो स्वाभाविक है। द‍ृष्टि निर्मल होगी तो द‍ृष्टिकोण स्पष्ट रहेगा। स्पष्ट द‍ृष्टिकोण वाला व्यक्‍ति न दूसरों के प्रति संदिग्ध रहता है और न ऐसा व्यवहार करता है, जिससे वह संदेहास्पद बन जाए। चाक्षुष केंद्र पर ध्यान का अभ्यास पुष्ट होने से ज्ञानतंतु भी सक्रिय हो जाते हैं, क्योंकि इस केंद्र का ज्ञान-केंद्र के साथ संबंध है।
चाक्षुष केंद्र पर ध्यान करते समय आँखें खुली रहें, बंद रहें, अधखुली रहें या अनिमिष, यह ध्याता के अभ्यास पर आधारित है। जिस स्थिति में ध्यान करने से विकल्प कम आएँ और चित्त की एकाग्रता बढ़े, वही मुद्रा उपयोगी हो सकती है। वैसे ध्यान की मुद्रा में अधखुली पलकों की स्थिति को अच्छा माना गया है। आँखें बंद करनी हों तो उन्हें कोमलता और सहजता से बंद भी किया जा सकता है।
प्रश्‍न : ऐसा भी कोई केंद्र है, जिस पर ध्यान करने से जागरूकता बढ़ती है और संयम पुष्ट होता है? प्रारंभिक अभ्यासकाल में ध्यान के लिए बैठते ही नहीं सताने लगती है। नींद से छुटकारा पाने के लिए किस चैतन्य-केंद्र को जाग्रत करना चाहिए?
उत्तर : जागरूकता बढ़ाने वाला अथवा नींद से छुटकारा दिलाने वाला केंद्र हैअप्रमाद-केंद्र। यह केंद्र कान में होता है। यहाँ चेतना के संवेदन काफी स्पष्ट होते हैं। उन पर थोड़ा-सा दबाव पड़ते ही आलस्य दूर हो जाता है। नींद टूट जाती है और आंतरिक जागरूकता बढ़
जाती है।
हमारे देश में प्राय: स्त्रियाँ कान बिंधवाती है, क्यों? आभूषण पहनने के लिए? सतही चिंतन का निष्कर्ष यही हो सकता है। किंतु थोड़ी-सी गहराई में उतरने पर अनुभव होता है कि हमारे पूर्वजों ने कान बिंधवाने की परंपरा का सूत्रपात बहुत सोच-समझकर किया था। आज यह रहस्य अनावृत्त होता या नहीं, पर शरीर-शास्त्री यहाँ तक पहुँच गए और उन्होंने अपने प्रयोगों के आधार पर यह प्रमाणित कर दिया कि कान के ऊपर और नीचे का स्थान कई द‍ृष्टियों से बहुत महत्त्वपूर्ण है। नाथ संप्रदाय के संन्यासी कान बिंधवाते हैं। बहुत बड़े-बड़े छेद करवा लेते हैं वे अपने कानों में, इसलिए उन्हें ‘कनफाड़े’ कहा जाता है। वर्तमान में वे भले ही किसी परंपरा या रूढ़ि को निभाने के लिए कर्णवेधन करें, किंतु मूलत: संयम और नियंत्रण की क्षमता को बढ़ाने के लिए यह एक विशेष प्रयोग करवाया जाता था।
शरीर-शास्त्र के अनुसार कान और उसके आसपास की स्नायु बहुत महत्त्वपूर्ण है। रूस के एक वैज्ञानिक और हांगकांग की महिला डॉक्टर ने कान पर विद्युत के संवेदन देकर अनेक लोगों को मद्य और तम्बाकू के नशे से मुक्‍त किया है। इन सारी घटनाओं से पता चलता है कि यह जागरूकता का केंद्र है और इसीलिए इसका नाम अप्रमाद-केंद्र है। प्रेक्षाध्यान के प्रयोगकाल में अनेक व्यक्‍ति इस केंद्र पर ध्यान कर व्यसन मुक्‍त हुए हैं, नशे से मुक्‍त हुए हैं और जीवन को मोड़ देने में सफल हुए हैं। हमारे शरीर में अनेक रहस्यपूर्ण सच्चाइयाँ हैं। पुराने आचार्यों ने उन्हें खोजा था और आज का विज्ञान भी उनकी खोज में संलग्न है। इसमें संदेह या अविश्‍वास का कोई कारण नहीं है। यदि हम उन रहस्यों को जानें और उनका सम्यक् उपयोग करें तो बहुत लाभ उठाया जा सकता है। कोई बालक उच्छृंखल होता है तो उसका कान पकड़ा जाता है। मौखिक रूप में दस बार समझाने पर भी वह समझे या नहीं, किंतु एक बार कान खींचते ही बात उसकी समझ में आ जाती है। इस व्यावहारिक उदाहरण से भी यही तथ्य स्पष्ट होता है कि कान, कान के आसपास का भाग तथा कनपटियाँ बहुत महत्त्वपूर्ण क्षेत्र हैं। प्राचीन समय में इन पर ध्यान करने की पद्धति रही है और प्रेक्षाध्यान पद्धति में भी इस केंद्र को बहुत महत्त्व दिया गया है।
प्रश्‍न : तीर्थंकरों तथा अन्य योगियों की ध्यान-मुद्रा में जो उल्लेख प्राप्त हैं, उनके अनुसार नासाग्र पर ध्यान करने की पद्धति रही है। क्या वहाँ भी कोई चैतन्य-केंद्र है?
उत्तर : नासाग्र पर ध्यान करना बहुत प्राचीन पद्धति रही है। आचार्य हेमचंद्र ने भगवान महावीर की ध्यान-मुद्रा का चित्रण करते हुए लिखा
वपुश्‍च पर्यंकशयं श्‍लथं च,
द‍ृशौ च नासानियते स्थिरे च।
प्रभो! पर्यंकासन में शिथिलीकरण के साथ लेटा हुआ शरीर तथा नासाग्र पर टिकी हुई अपलक आँखें, आपकी यह मुद्रा इतनी विशिष्ट है कि हर किसी के लिए गम्य भी नहीं है। नासाग्र पर द‍ृष्टि टिकाकर ध्यान करने का प्रमुख कारण है, वहाँ प्राणवायु की उपस्थिति। वैसे प्राणवायु शरीर के अन्य स्थानों में भी रहती है, पर नासाग्र उसका मुख्य केंद्र है। उस पर ध्यान टिकते ही मूल नाड़ी तन जाती है। अपने आप मूलबंध हो जाता है। नासाग्र चेतना का विशिष्ट स्थान है। इस केंद्र का नाम हैप्राण केंद्र। अनेक आचार्यों ने प्राण-केंद्र पर ओम् तथा हकार का ध्यान करने की बात बतलाई है। उसमें मंत्र के साथ केंद्र का ही अधिक मूल्य है। नासाग्र प्राण-विद्युत का केंद्र है। इस द‍ृष्टि से प्राण-शक्‍ति की प्रखरता के लिए भी इसका उपयोग करना बहुत आवश्यक है। हमारे शरीर में प्राणशक्‍ति ही सब कुछ है। प्राणवान व्यक्‍ति कुछ भी करने में समर्थ होता है। जिसकी प्राण-शक्‍ति चूक जाती है, वह कुछ भी नहीं कर सकता। प्राणहीन मनुष्य निराश और कुंठित हो जाता है। निराशा और कुंठा को तोड़ने के लिए भी नासाग्र अर्थात् प्राण-केंद्र पर ध्यान करना बहुत उपयोगी है।

(क्रमश:)