उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)

ु आचार्य महाश्रमण ु

आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय)

लक्षणविद्या, स्वप्नविद्या, मंत्रविद्या एवं ज्योतिषविद्या के प्रयोग का गृहस्थ के सम्मुख सम्भाषण करना साधु के लिए वर्जित है फिर भी जैन धर्म की प्रभावना को प्रमुख मानकर आचार्य भद्रबाहु ने निमित्त ज्ञान से लघु सहोदर के नवजात शिशु का आयुष्य सात दिन घोषत किया था तथा बिल्ली के योग से उसकी मौत बताई थी।
वराहमिहिर के द्वारा शतश: प्रयत्न होने पर भी सात दिन से अधिक बालक बच न सका। उसकी मौत का निमित्त अर्गला थी, जिस पर बिल्ली का आकार था। भद्रबाहु का निमित्त ज्ञान सत्य के निकष पर सत्य सिद्ध हुआ। जन-जन के मुख पर उनका नाम प्रसारित होने लगा। भद्रबाहु ने वराहमिहिर के घर पहुँचकर लघु भ्राता के शोक-संतप्त परिवार को सांत्वना प्रदान की। आचार्य भद्रबाहु की ज्योतिषविद्या से प्रभावित होकर वहाँ के राजा जितशत्रु ने उनसे श्रावक धर्म स्वीकार किया था।
वराहमिहिर को लज्जित होना पड़ा। व्यथित बना वराहमिहिर मर कर व्यंतर देव बना। तपोमूर्ति संतों पर तो उसका कोई बस नहीं चल सका पर पूर्व वैर स्मरण कर श्रावक-संघ को त्रास देने लगा। आचार्य भद्रबाहु ने संघ में फैले उपसर्ग की उपशांति हेतु भगवान् पार्श्‍वनाथ का एक स्तोत्र बनाया जिसका प्रथम पद‘उवसग्गहरं पासं’ होने से यह इसी नाम से प्रसारित हुआ तथा आज भी बहुत ही प्रभावक माना जाता है।
विघ्न की शांति हो जाने के बाद भी स्तोत्र जन-जन में कंठस्थ था। कइयों ने इसका गलत ढंग से उपयोग प्रारंभ कर दिया तब स्तोत्र की एक गाथा गुप्त रख दी गई, ऐसा माना जाता है।
आर्या छंदों में निर्मित पद्यमयी प्राकृत भाषा में दस निर्युक्‍तियों के अतिरिक्‍त भद्रबाहु-संहिता आदि ग्रंथ भी उनके माने जाते हैं। इनका समय विक्रम की पाँचवीं शताब्दी के बाद का है।

आचार्य मानतुङ्ग

स्तोत्र-काव्यों में भक्‍तामर स्तोत्र उत्तम रचना है। भक्‍ति रस का यह छलकता निर्झर है। इस स्तोत्र के रचनाकार आचार्य मानतुङ्ग थे। वे अपने युग के प्रतिष्ठित कवि थे और यशस्वी विद्वान् थे। कवित्व-शक्‍ति का उनमें विशेष विकास था एवं संस्कृत भाषा पर उनका आधिपत्य था। आचार्य मानतुङ्ग ने श्‍वेताम्बर मुनि-दीक्षा और दिगम्बर मुनि-दीक्षा दोनों ही प्रकार की दीक्षा ग्रहण की थी। श्‍वेताम्बर परम्परा में आचार्य मानतुङ्ग के गुरु अजितसिंह और दिगंबर परम्परा में उनके दीक्षा गुरु चारुकीर्ति थे। मानतुङ्ग का परिवार धार्मिक संस्कारों से संस्कारित था। धर्मनिष्ठ पिता धनदेव के योग से मानतुङ्ग को धार्मिक संस्कार सहज प्राप्त हुए। जैन दिगंबर मुनिजनों से प्रवचन सुनकर धीर, गंभीर मानतुङ्ग को संसार से विरक्‍ति हुई। मां-बाप से अनुमति लेकर उन्होेंने आचार्य चारूकीर्ति से दिगंबर मुनि-दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा-जीवन में उनका नाम महाकीर्ति रखा। मुनि-चर्या में सजग महाकीर्ति एक दिन लक्ष्मीधर श्रेष्ठी के घर गोचरी गए। लक्ष्मीधर श्रेष्ठी की पत्नी मानतुङ्ग की बहिन थी। वह श्‍वेताम्बर परम्परा को मानती थी। उसने मुनि के सामने श्‍वेताम्बर मुनि-चर्या का वर्णन किया। बहिन की प्रेरणा से बोध-प्राप्त महाकीर्ति मुनि ने दिगम्बर मुनिचर्या का परित्याग कर श्‍वेताम्बराचार्य अजितसिंह के पास श्‍वेताम्बर मुनि-दीक्षा स्वीकार की। श्‍वेताम्बर श्रमण बनने के बाद संप्रदाय-परिवर्तन के साथ संभवत: उनका नाम परिवर्तित हुआ। वे मानतुङ्ग से संबोधित होने लगे जो उनके गृहस्थ जीवन का नाम था। गुरु के पास तपोविधिपूर्वक मुनि मानतुङ्ग ने आगम का अध्ययन किया। स्वल्प समय में वे आगमविज्ञ मुनियों की गणना में आने लगे। गुरु ने योग्य समझकर उनकी नियुक्‍ति सूरि पद पर की। गच्छ से विशेष सम्मान मानतुङ्ग को प्राप्त हुआ। सरस्वती उन पर प्रसन्‍न थी। वे बुद्धि के धनी ही नहीं, कुशल काव्यकार भी थे।
(क्रमश:)