मनोवैज्ञानिक व्यक्‍तित्व के स्वामी  आचार्य भिक्षु

मनोवैज्ञानिक व्यक्‍तित्व के स्वामी आचार्य भिक्षु

मुनि चैतन्य कुमार ‘अमन’

इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों पर तेरह अंक को बहुत ही महत्त्वपूर्ण माना गया है। न केवल भारतीय इतिहास बल्कि अंतर्राष्ट्रीय इतिहास में तेरह की संख्या को अपूर्व माना गया है। तेरह तारीख, तेरस की तिथि दोनों को ही विलक्षण संख्या कहा गया है ऐसे अनेक महापुरुष हुए हैं, जिनका तेरह तारीख या तेरस की तिथि का सुंदर योग है। इसी तेरह की संख्या का सूचक त्रयोदशी के दिन तेरापंथ धर्मसंघ के संस्थापक हुए आचार्य भिक्षु। जिनका जन्म हुआ त्रयोदशी को तो स्वर्गवास भी त्रयोदशी के दिन हुआ।
आचार्य भिक्षु साधनाशील संत होने के साथ-साथ एक महान मनोवैज्ञानिक भी थे। वे व्यक्‍ति के मनोभावों को समझकर ही अपना मंतव्य प्रस्तुत करते। एक बार कुछ व्यक्‍ति स्वामीजी के पास आए और बोलेभीखणजी घोड़े के कितने पैर होते हैं? उनकी अंतर की भावनाओं को पहचानते हुए स्वामी जी ने कहाएक, दो, तीन, चार। हाँ घोड़े के चार पैर होते हैं। उन व्यक्‍तियों ने कहाभीखणजी आप इतने विलक्षण प्रतिभावान साधु होकर भी इस प्रकार गिनकर उत्तर दे रहे हैं। जबकि यह तो बिलकुल सीधी सी बात है। स्वामीजी ने कहाभाइयों तुम ठीक कहते हो। यह बात तो सीधी-सी है, किंतु मैं तत्काल कह देता घोड़े के चार पैर होते हैं और उसी समय तुम पूछ लेते कि कनखजूरे के कितने पैर होते हैं इसका उत्तर मैं तत्काल नहीं देकर धीरे-धीरे गिनकर देता तो तुम क्या समझते। उन व्यक्‍तियों ने कहाभीखणजी आपने ठीक कहा। हम आए तो यही सोचकर थे। इसी प्रकार स्वामीजी एक मनोवैज्ञानिक व्यक्‍तित्व के धनी साधु थे।
आचार्य भिक्षु का व्यक्‍तित्व वास्तव में एक अपराजेय व्यक्‍तित्व था। उन्होंने कभी विरोध का प्रत्युत्तर विरोध से नहीं दिया। वे विरोध को विनोद में बदल देते। सामने वाला व्यक्‍ति स्वत: पानी-पानी हो जाता है। उन्हें पराजित करने वाला स्वयं पराजित और लज्जित होकर चला जाता। किसी व्यक्‍ति को समझाने की शैली बड़ी अद्भुत थी। किसी बात को समझाने के लिए वे द‍ृष्टांत की भाषा में बोलते जिससे सामने वाला अच्छे ढंग से समझकर उन्हीं का अनुयायी बन जाता। स्वामीजी आचार-हीनता को कतई पसंद नहीं करते। उनका स्पष्ट मंतव्य था कि आचार-चरित्र संबंधी गलती कभी क्षम्य नहीं हैं एक बार चंडावल में फत्तुजी आदि पाँच साध्वियों को स्वामीजी ने कहा जितना कपड़ा चाहिए तुम अपनी आवश्यकतानुसार ले लो। साध्वियों ने जितनी आवश्यकता बताई स्वामीजी ने उतना कपड़ा दे दिया। जब साध्वियाँ कपड़ा लेकर चली गई तो पीछे से स्वामीजी को महसूस हुआ कि साध्वियों ने कपड़ा कल्प से अधिक लिया है। स्वामीजी ने मुनि अखेरामजी को भेजकर उनका कपड़ा मँगवाया और उसे मापा तो कपड़ा कल्प से कुछ अधिक निकला। तब स्वामीजी ने उपालंभ देते हुए उन पाँच साध्वियों को कल्प विषयक अप्रतीति होने के कारण संघ से संबंध विच्छेद कर दिया। यह था स्वामीजी द्वारा आचार-हीनता का प्रतिकार। स्वामी ने आचार-हीनता को कभी प्रश्रय नहीं दिया।
हम देखते हैं सत्य प्रेमी व्यक्‍ति कई मिलते हैं, मगर सत्यनिष्ठ व्यक्‍ति कोई-कोई होते हैं। स्वामी जी सत्यनिष्ठ व्यक्‍ति थे। उन्होंने सत्य के लिए सुख, पद प्रतिष्ठा और चिरपालित परंपराओं को कभी महत्त्व नहीं दिया। सत्य को स्वीकार करने में उन्होंने कभी ढील नहीं की तो असत्य के साथ समझौता भी नहीं किया। उनकी अंतस् की गहरइयों में जितनी सत्य के प्रति निष्ठा थी तो असत्य के प्रति उतनी घृणा भी थी। सत्य के विनम्र भक्‍त थे तो असत्य के कठोर आलोचक।
स्वामी जी सत्य भक्‍ति के साथ अध्यात्म प्रेरक, तीखे आलोचक, मानव मन के पारखी, महान साहित्य सृजक और महान आत्मबली पुरुष थे। इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों पर ऐसे व्यक्‍ति कभी-कभी होते हैं। स्वामीजी का जीवन एक प्रेरणादायी जीवन था। उनका आंतरिक व्यक्‍तित्व तो प्रेरणा ोत था ही उनका बाह्य व्यक्‍तित्व भी विलक्षण प्रतिभायुक्‍त था। ऐसे महामना, क्रांतद्रष्टा, सत्यावातार, सिरियारी के संत आचार्य भिक्षु को उनके चरम दिवस पर विनम्रतापूर्वक भावांजलि अर्पित करते हैं तथा उनकी अद‍ृश्य शक्‍ति को प्राप्त कर हम भी अपनी संयम-यात्रा को निर्बाध गति से निरंतर गतिशील करते हुए अपनी लक्षित मंजिल प्राप्त करें। यही उनके प्रति हमारी सच्ची श्रद्धा होगी।