आत्मा के आसपास

स्वाध्याय

आत्मा के आसपास

आचार्य तुलसी

प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा

चैतन्य-केंद्रों का प्रभाव
प्रश्‍न : ज्ञानमयी चेतना का विकास होने पर भी आंतरिक आवेगों से छुटकारा न मिले तो व्यक्‍ति शांति से जी नहीं सकता। उन आवेगों पर विजय पाने के लिए किस चैतन्य-केंद्र पर ध्यान करना चाहिए?
उत्तर : सिर के अग्र भाग में अर्थात ज्ञान-केन्द्र की ढलान में एक विशिष्ट चैतन्य-केंद्र है, जो शांति-केंद्र के नाम से अपनी पहचान बना चुका है। यह केंद्र मनुष्य के आवेशों के लिए उत्तरदायी है। आवेश और तापमान का नियंत्रण यहीं से होता है। शांति-केंद्र का परिष्कार होने से आवेश स्वयं शांत हो जाते हैं। इसे कषाय-केंद्र और उसके उपशमन का केंद्र भी कहा जा सकता है। जब तक यह केंद्र परिष्कृत नहीं होता, कषाय-केंद्र हैं। परिष्कृत होते ही यह शांति-केंद्र बन जाता है।
मनुष्य की जितनी संज्ञाएं हैं, वृत्तियां हैं, मोह-कर्म की प्रकृतियां हैं, उन सबकी अभिव्यक्‍ति के केंद्र शरीर में विद्यमान हैं। किंतु यह खोजा नहीं गया कि कौन-सी वृत्ति की अभिव्यक्‍ति का केंद्र यहां है? शरीर-शास्त्रियों और मानस-शास्त्रियों ने इस विषय पर खोज की और उन्होंने पता लगा लिया कि आवेश का नियंत्रण करने वाला केंद्र कहां है? अध्यात्म के प्राचीन आचार्यों ने भी इस विषय में खोज की थी, पर मध्यकाल में उसकी विस्मृति हो गई। हमने उन दोनों के तुलनात्मक अध्ययन और अनुसंधान के द्वारा उन स्थानों को खोजने का प्रयत्न किया। एक सीमा तक हमारा प्रयत्न फलीभूत हुआ और वह स्थान हमारी पकड़ में आ गए। इस खोज में चैतन्य-केंद्रों के ध्यान की उपयोगिता बढ़ गई।
मनोविज्ञान के अनुसार आवेग मनुष्य की मूलभूत मनोवृत्ति है। दो प्रकार के आवेग होते हैं- आंतरिक और बाह्य। बाह्य आवेगों पर नियंत्रण स्वास्थ्य की द‍ृष्टि से लाभप्रद नहीं है। आंतरिक आवेगों पर नियंत्रण न हो तो वह स्थिति अहितकर हो जाती है। शांति-केंद्र पर दीर्घकाल तक ध्यान करने वालों का अनुभव है कि इस प्रयोग से वे अपने आवेगों पर नियंत्रण पाने में सफल हुए हैं।
प्रश्‍न : एक मान्यता के अनुसार हमारे शरीर में तीसरा नेत्र भी है। क्या यह बात सही है? यदि वह है तो चैतन्य-केन्द्रों में से ही कोई केन्द्र है अथवा उसका स्वतंत्र अस्तित्व है? वह कहां है?
उत्तर : शांति-केंद्र के नीचे एक महत्त्वपूर्ण चैतन्य-केंद्र है- ज्योति-केंद्र। यह ‘पीनियल ग्लैण्ड’ का स्थान है। इसके विषय में शरीर-शास्त्री बहुत कम जान पाए हैं। अभी इन दिनों इस संबंध में कुछ जानकारियां मिली हैं, जिनके आधार पर इसकी महत्ता का अंकन किया जा रहा है। वास्तव में यह ज्योतिकेंद्र ही तीसरा नेत्र है।
कुूछ लोग दर्शन-केंद्र का आज्ञाचक्र को तीसरा नेत्र बतलाते हैं, किंतु ज्योति-केंद्र उनसे भी विशिष्ट है। एक द‍ृष्टि से दर्शन-केंद्र और ज्योति-केंद्र इन दोनों को ही तीसरा नेत्र कहा जा सकता है, पर दोनों में महत्त्व इसका अधिक है। महत्त्व का कारण है, इसकी उपयोगिता। यह क्रोध को शांत करने वाला केंद्र है। इस पर ध्यान करने से क्रोध बहुत जल्दी शांत हो जाता है। ब्रह्मचर्य की द‍ृष्टि से भी इस केंद्र का बड़ा उपयोग है। इसे नियामक ग्रंथि या मुख्य ग्रंथि ‘मास्टर ग्लैण्ड’ माना गया है। नीचे की सभी ग्रंथियों के ावों पर नियंत्रण करने वाला यही केंद्र है। इसके परिष्कार से हमारी अनेक प्रकार की शारीरिक और मानसिक समस्याएं सुलझ जाती हैं।
प्रश्‍न : तीसरे नेत्र के लिए आपने ज्योति-केंद्र और दर्शन-केंद्र दोनों के नाम बतलाए। ज्योति-केंद्र के संबंध में कुछ जानकारी भी आपने करवा दी है। यह दर्शन-केंद्र कहां है? और क्या काम करता है।
उत्तर : पीयूष-ग्रंथि (पिच्यूटरी) का जो स्थान है, वह दर्शन-केंद्र है। दोनों भृकुटियों और दोनों आंखों के बीच का स्थान है। इस केंद्र पर जैसे-जैसे ध्यान जमता है, वैसे-वैसे प्रेक्षा अंत:प्रेक्ष बन जाती है, प्रज्ञा अंत: बन जाती है। यहां पहुंचने पर व्यक्‍ति का व्यक्‍तित्व पूर्णत: आंतरिक बन जाता है। अंतर्मुखता आने के बाद बाहरी वृत्तियां किसी प्रकार का व्यवधान उपस्थित नहीं कर सकतीं। ललाट और मस्तिष्क का यह स्थान साधना की द‍ृष्टि से एक महान अवदान है। यदि हम पूरी जागरूकता, एकाग्रता और संकल्पशक्‍ति के साथ इसका उपयोग करें तो जीवन में ऐसा रूपांतरण घटित हो सकता है, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।
प्रश्‍न : आपने केंद्रों का नामकरण किसी आधार पर किया है?
उत्तर : चैतन्य-केंद्रों के नाम उनसे होने वाली निष्पत्तियों और कार्यविधियों के आधार पर किए गए हैं। प्राचीन ग्रंथों में शरीर-गत चक्रों के नाम उपलब्ध हैं। तंत्र-शास्त्र और हठयोग में चक्रों के नामों का उल्लेख है। किंतु ऐसा अनुभव हुआ कि शरीर में केवल छह-सात ही चक्र नहीं हैं। शक्‍ति और चैतन्य के सैकड़ों केंद्र हैं उसमें। उनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण केंद्रों का चुनाव किया गया है और उन पर ध्यान के प्रयोग किए गए। प्रयोग-काल में जो अनुभव हुए उन्हें आधार मानकर नामों का अवतरण सहज हो गया। चैतन्य-केंद्रों के नाम खोजने की द‍ृष्टि से न किसी ग्रंथ का सहयोग लिया और न कोई चिंतन या परामर्श ही किया। जैसे-जैसे उनकी व्याख्या की, नाम अवतरित होते गए और उनकी संगति बैठती गई। किस केंद्र पर ध्यान करने से शरीर, मन और जीवन में क्या घटित होता है? इस प्रकार की अनुभूति के आधार पर चैतन्य-केंद्रों के नामों को अन्वर्थ बनाने का लक्ष्य भी सामने रहा है।

चैतन्य-केंद्रों का जागरण : भाव-तरंगों का परिष्कार
चाक्षुष केंद्र कनीनिका, शांति-सेतु अविवाद।
सधे सहज एकाग्रता, तन-मन में आह्लाद॥
छठा केंद्र है कान में, अप्रमाद अभिधान।
जागरूकता-वृद्धि में, है इसका अवदान॥
प्राण-केंद्र नासाग्र पर, लगता जिसका ध्यान।
उसके प्राणों में सदा, भर जाती मुसकान॥
ब्रह्मा-केंद्र जिह्वाग्र पर, जमे ध्यान अविराम।
सहज शांत हो वासना, आत्मरमण परिणाम॥
प्रश्‍न : चाक्षुष केंद्र का क्या काम है? यह हमारी द‍ृष्टि को निर्मल बनाता है अथवा भाव-तरंगों को प्रभावित करता है? इस केंद्र पर ध्यान करते समय आँखें खुली रखनी चाहिए या बंद?
उत्तर : आँख सबको देखती है, किंतु आँख पर हम कभी ध्यान केंद्रित नहीं करते। आँख को देखने और पहचानने के लिए एक भीतरी आँख की जरूरत है, जिसका उद्घाटन ध्यान के द्वारा हो सकता है। मस्तिष्क के साथ आँख का गहरा संबंध है। प्राण विद्युत के विकिरण का यह एक महत्त्वपूर्ण माध्यम है। जब हम आँख को बंद कर उस पर ध्यान केंद्रित करते हैं, इसका अर्थ है कि हम अपनी विद्युत को बहुत बचा लेते हैं। उस बची हुई विद्युत का उपयोग संकल्पशक्‍ति या एकाग्रता के विकास में किया जा सकता है। (क्रमश:)