संबोधि

स्वाध्याय

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आचार्य महाप्रज्ञ

बंध-मोक्षवाद
भगवान् प्राह

(12) योग: शुभोऽशुभो वापि, चतो ह्यशुभा ध्रुवम्।
निवृत्तिवलिता वृत्ति:, शुभो योगस्तपोमय:॥

योग शुभ और अशुभदो प्रकार का होता है और शेष चार सूक्ष्म प्रवृत्तियाँ अशुभ ही होती हैं। निवृत्ति-युक्‍त वर्तन शुभ योग कहलाता है और वह तप-रूप होता है।

आत्मा शरीर से मुक्‍त नहीं है इसलिए वह प्रवृत्ति करती है। स्वतंत्र आत्मा में शरीरजन्य प्रवृत्ति नहीं होती। जहाँ प्रवृत्ति है वहाँ बंध है। प्रवृत्ति के शुभ और अशुभ दो रूप हैं। दोनों ही प्रवृत्तियों से आत्मा पुद्गलों को ग्रहण करती है और अपने साथ एकीभूत करती है। वे पुद्गल ही कर्म रूप में परिणत हो जाते हैं। मोक्ष है पुद्गलों का सर्वथा क्षय। वह निवृत्त अवस्था है।
आत्मा के सूक्ष्म स्पंदन का अनुमान करना कठिन है। बाहरी चेष्टाओं से उसकी प्रतिक्रिया जानी जा सकती है। अंतर्मन की किया आकार, प्रकार, संकेत, गति, चेष्टा, भाषण आदि से जानी जा सकती है तो सूक्ष्म अध्ययन से अवचेतन मन का परिज्ञान क्यों नहीं हो सकता? समस्त प्रवृत्ति के हेतु हैंशरीर, वाणी और मन। इनकी प्रवृत्ति को योग कहा जाता है। योग स्थूल है, स्पष्ट है और सूक्ष्म प्रवृत्तियों का परिचायक भी है। आत्मा अमूर्त है अत: इन स्थूल प्रवृत्तियों से परिज्ञात नहीं हो सकती।

(13) अविरतिर्दुष्प्रवृत्ति:, सुप्रवृत्तिस्त्रिधाव:।
यथाक्रमं निवृत्तिश्‍च, कर्माऽकर्मविभागत:॥

अविरति, दुष्प्रवृत्ति, सुप्रवृत्ति, निवृत्तिइनका कर्म और अकर्म के आधार पर इस प्रकार विभाग होता हैप्रथम तीन कर्म हैं इसलिए उनसे कर्म का आवण होता है। निवृत्ति अकर्म है इसलिए निरोधात्मक है, संवर है।

(14) अशुभै: पुद्गलैर्जीवं, बध्नीत: प्रथमे उभे।
तृतीयं खलु बध्नाति, शुभैरेभिश्‍च संसृति:॥

अविरति और दुष्प्रवृत्ति अशुभ पुद्गलों से और सुप्रवृत्ति शुभ पुद्गलों से जीव को आबद्ध करती है। शुभ और अशुभ पुद्गलों का बंधन ही संसार है।

(15) अशुभांश्‍च शुभांश्‍चापि, पुद्गलांस्तत्फलानि च।
विजहाति स्थितात्माऽसौ, मोक्षं यात्यपुनर्भवम्॥

जो स्थितात्मा शुभ-अशुभ पुद्गल और उनके द्वारा प्राप्त होने वाले फल का त्याग करता है, वह मोक्ष को प्राप्त होता है। फिर वह कभी जन्म ग्रहण नहीं करता।
प्रवृत्ति चंचलता है और निवृत्ति स्थिरता। निवृत्ति-दशा में आत्मा अपने स्वरूप में ठहर जाती है। वहाँ शारीरिक, मानसिक और वाचिक क्रियाओं का सर्वथा निरोध हो जाता है। उस स्थिति में पुद्गलों का प्रवेश और उनका फल छूट जाता है। आत्मा मुक्‍त हो जाती है। मुक्‍त आत्माओं का जन्म-मरण नहीं होता।

(16) अशुभानां पुद्गलानां, प्रवृत्त्या शुभया क्षय:।
असंयोग: शुभाना×च, निवृत्त्या जायते ध्रुवम्॥

शुभ प्रवृत्ति से पूर्व अर्जितबद्ध अशुभ पुद्गलोंपाप-कर्मों का क्षय होता है। निवृत्ति से शुभ-अशुभदोनों प्रकार के कर्म-पुद्गलों का संयोग भी रुक जाता है।
(क्रमश:)