साँसों का इकतारा

स्वाध्याय

साँसों का इकतारा

(58)

तुमने मेरे मन को माँगा
भोले इस बचपन को माँगा
पर देखो पल-पल में इनके
साथ तुम्हें ही रहना होगा
पोर-पोर में दर्द बिखेरो
या मुझको खुशियों से घेरो
सुख-दुख की रिश्तेदारी का
भार तुम्हें ही वहना होगा।

तूफानों के बीच खड़ी मैं
तुमने तट की याद दिलाई
गरल निगल संतुष्ट हुई मैं
तुमने इमरत धार पिलाई
सोए थे जो सपने तुमने
दस्तक देकर उन्हें जगाया
सहम गई मैं कल्पित भय से
तुमने उसको दूर भगाया
जीवन दिया मृत्यु भी दो तो
मुझको कुछ परवाह नहीं है
किंतु मुझे कब क्या करना है
यह तुमको ही कहना होगा॥

मन की सरहद पर लड़ने का
तुमने ही आदेश दिया है
हलचल पैदा करूँ समर में
तुमने वह आवेश दिया है
प्रिय मस्ती का जीवन मुझको
तुमने दी चिंतन की धारा
रहती मैं अपनी सीमा में
तुमने ही झट तोड़ी कारा
विजय मिली अब हार अगर दो
उसका भी मैं वरण करूँगी
पर जीवन का नाजुक दर्रा
साथ-साथ ही गहना होगा॥

पूनम की ले हँसी धरा पर
क्या तुम अम्बर से आए हो
दूर सितारों की दुनिया से
ये उजली किरणें लाए हो
धरती के इन चेहरों पर तो
अब भी देखो तम के पहरे
जितना धोते हो तुम उनको
बन जाते उतने ही गहरे
मन की जिद्दी साधों को तुम
समझाओ या तोड़ गिराओ
किंतु समंदर की लहरों पर
साथ-साथ ही बहना होगा॥

(क्रमश:)