साँसों का इकतारा

साँसों का इकतारा

(56)
गीत तुम्हारे स्वर मेरे हैं चाहो तो जी भरकर गाऊँ।
चाहो तो मैं बाँध सुरों को नीरव अभिव्यंजन बन जाऊँ॥

अनजानी राहों को पाकर उलझ गई जीवन के अथ में
पाँवों को गति दी तुमने ही अनजाने अनचीन्हे पथ में
अभी कषोपल पर मत कसना नहीं साधना मेरी पूरी
जितनी जल्दी करती उतनी बढ़ जाती मंजिल की दूरी
मोड़-मोड़ पर दीप जलाकर यदि गहरा आलोक बिछाओ
बीहड़ राहों में एकाकी चलकर भी न कभी घबराऊँ॥

मन के खोल झरोखे तुमने परमात्मा का रूप दिखाया
बोध नहीं जिनको कुछ भी उनको जीने का अर्थ सिखाया
छोड़ धरातल द‍ृढ़ यथार्थ का कभी नहीं तुम सपने लेते
सागर की क्या बात रेत में भी जीवन की नौका खेते
पिघल रहे पाषाण सहज ही देख तुम्हारी मुस्कानों को
मिले प्रशिक्षण मुझे अगर तो मैं भी कुछ करके दिखलाऊँ॥

श्रम का सिंचन देकर पल-पल उपवन के स्वामी बन पाए
रत्नों की निधि पाई कैसे इसका राज कौन बतलाए
पा विश्‍वास तुम्हारा अपना सब कुछ मैंने किया समर्पण
चाहो तो निज रूप निहारो प्रस्तुत है शब्दों का दर्पण
छंदमुक्‍त को बाँध छंद में अपराधी तो नहीं बनूँगी
इतना आश्‍वासन दे दो तो छंदों की माला पहनाऊँ॥

(57)
चंदा से भी अधिक प्यार दे
दुलराया तुमने नखतों को
छिप जाता हर मावस को वह
मुसकाते हैं नभ के तारे
फूलों से भी अधिक प्यार दे
सहलाया तुमने शूलों को
मुरझाते हैं सुमन सभी
इठलाते हैं ये काँटे सारे॥

सूरज की पूजा करते सब
तुमने तम को गले लगाया
अपनी उजली किरणों से भी
उसको जीभर कर नहलाया
जग की मिली उपेक्षा चाहे
पाई तुमसे स्नेहिल छाया
इसीलिए हर चौराहे पर
तुमने ही आलोक बिछाया
बेगानों अनजानों के भी
तुमने कितने काम संवारे॥

धरती के सूने आँगन में
कितने पावन तीर्थ उगाए
मौसम मायूसी का फिर भी
तुमने गीत खुशी के गाए
पतझर को भी खुशहाली का
सहजतया वरदान दिया है
हर वसंत के शुभ वैभव को
बढ़ने का आह्वान किया है
तूफानों के घेरे में भी
आर्यदेव! तुम कभी न हारे॥

आज तर्क के वाहन पर चढ़
हर प्रबुद्ध मानव चलता है
प्रस्तुत करके नई दलीलें
बड़े-बुजुर्गों को छलता है
श्रद्धा से भी सबल हो गई
बौद्धिकता की राजकुमारी
पानी से भी अधिक आज बन
रही देव! क्यों प्यास दुलारी
तुमसे पा सद्बुद्धि देखलो
प्राण-विहग ये पंख पसारे॥
(क्रमश:)