आलोचना का जवाब जुबान से नहीं, कार्य से दें : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

आलोचना का जवाब जुबान से नहीं, कार्य से दें : आचार्यश्री महाश्रमण

आक्या, मंदसोर, 29 जून, 2021
विनय की पराकाष्ठा के धनी परम पूज्य आचार्यश्री महाश्रमण जी आज प्रात: विहार कर आक्या ग्राम के सरकारी विद्यालय में पधारे। विनयमूर्ति ने फरमाया कि शास्त्रकार ने कहा है कि गुस्सा प्रीति का नाश करने वाला होता है। यह आदमी की दुर्बलता ही माननी चाहिए कि कभी-कभी आवेश आ जाता है। गुस्सा आ जाता है। बाद में गुस्सा करने वाला पश्‍चात्ताप भी करता है। एक बार तो अंट-संट, उचित-अनुचित बोल देता है।
यह गुस्सा आत्मा के लिए भी अहितकर कर्म-बंधकारक कषाय है। व्यवहार में भी अच्छा नहीं। आदमी जितना शांति में रहता है, वह बढ़िया बात होती है। घास-फूस है, वहाँ चिंगारी पड़ेगी तब तो वह आग प्रज्जवलित हो सकती है। एकदम सूखा मैदान-मिट्टी है, वहाँ चिंगारी पड़ेगी तो क्या लपटें उठेंगी। इस संदर्भ में हमें बिना घास-फूस का मैदान बनना चाहिए। कोई भले कह दे, हमें कोई दिक्‍कत नहीं, गुस्सा नहीं।
गृहस्थ जो परिवार-समाज में रहते हैं, वो पारिवारिक द‍ृष्टि से देखें कि गुस्सा, आवेश है, वो परिवार में शांति भंग करने वाला बन सकता है। अनावश्यक खींचतान न करें। रस्सी को खींचेंगे तो रस्सी टूट सकती है। दोनों गिर सकते हैं। एक ने ढील छोड़ दी तो खींचने वाला ही गिरेगा। दोनों ने ढील छोड़ दी तो कोई नहीं गिरेगा। खींचतान फालतू काम की नहीं होती। खींचतान से गुस्सा आ सकता है।
साधु क्षमामूर्ति-शांतिमूर्ति होना चाहिए। ॠषि-साधु होते हैं, वो महान प्रसाद वाले प्रसन्‍नता वाले होते हैं। गुस्सा आता है, तो उसे कम करने का उपाय क्या करें? शास्त्र में कहा गया है‘उवसणे णे कोहं।’ उपशम से गुस्से को शांत करें। गुस्सा अग्नि है, उपशम जल है। गुस्सा शांत करने का प्रयोग समझाया।
गुस्सा आने लगे तो लंबा श्‍वास लें। मौन रखें या वो स्थान छोड़ दें। संत वह होता है, जो शांत होता है। यह एक प्रसंग से समझाया कि साधु या अन्य किसी पर गुस्सा नहीं करना चाहिए। गुस्सा किसी के लिए काम का नहीं। किसी को कहना पड़े तो ऊपर से भले कठोरता हो, पर भीतर में कोमलता रहे। साधु को गुस्से से बचना चाहिए।
गुस्सा दो तरह का होता हैएक तो सिर्फ वाचिक कुछ कहना, दूसरा मन में आवेश आना। आत्म प्रदेश में तेजी-उत्पत्ति नहीं आनी चाहिए। साधु का कषाय प्रतनू-पतला रहना चाहिए। गृहस्थों को भी ध्यान रखना चाहिए कि ज्यादा गुस्सा काम का नहीं है। गुस्सा मनुष्य का शत्रु होता है।
आलस्य मनुष्यों के शरीर में रहने वाला शत्रु है, तो गुस्सा भी दिमाग में रहने वाला, गुस्सा योग रूप में न आए। मन में भी नहीं आना चाहिए। राड़-झगड़े-कलह में कोई सार नहीं है, नि:सार है। मैत्री और शांति का भाव रखना चाहिए।
पूज्य मघवा गणि के समय डालमुनि की पानी वाली घटना प्रसंग को समझाया जहाँ उचित लगे बात का स्पष्टीकरण करना चाहिए। फालतू बात कोई कह दे, पर गुस्सा-आवेश नहीं, निंदा नहीं। निंदा-आलोचना किसी की भी हो सकती है, इसका जवाब जबान से दिया जा सकता है पर दूसरा उपाय है, इसका जवाब अच्छा काम करके करो।
अच्छा कार्य करते रहेंगे तो निंदा करने वाले भी कभी प्रशंसा करने लग जाएँगे। कल्याण परिषद के अनेक पार्षद आए हुए हैं, अनेक संस्थाओं से जुड़े हैं। कोई संस्था की भी निंदा-आलोचना कर दें। कर दी तो कर दी, अपना काम बढ़िया करते जाओ। निंदा वाली बात में सार नहीं है, तो क्यों दिमाग में भार दें।
साधु हो या गृहस्थ, पदाधिकारी हो या कर्मचारी गुस्सा सामान्यतया या लगभग किसी के लिए काम का नहीं है। बात कड़ी कही जा सकती है, बात बड़ी भी कही जा सकती है, पर बिना गुस्से के शांति से पेश आना चाहिए। शास्त्रकार ने कहा है कि गुस्सा प्रीति का नाश करने वाला है। हमें गुस्से का ही नाश कर देना चाहिए।
जैन विश्‍व भारती द्वारा प्रकाशित आचार्यश्री महाश्रमण जी की दो कृतियाँ ‘धर्म एक समाधान’ और ‘विकास का राजमार्ग’ प्रकाशित हुई है। कन्हैयालाल जैन एवं मनोज लुणिया ने दोनों कृतियाँ पूज्यप्रवर के श्रीचरणों में समर्पित की।
पूज्यप्रवर ने फरमाया कि कन्हैयालाल अणुव्रत से जुड़े रहे थे। दिल्ली समाज के खास आदमी हैं। चित्त की स्वस्थता रहनी चाहिए। अनुकूलता-प्रतिकूलता तो आती रहती है। जप की साधना चलती रहे। ये जो दो किताबें परम पूज्य गुरुदेव महाप्रज्ञ जी की है, गुरुदेव विद्वान मनीषी थे। जैविभा को उनका साहित्य आगे लाने का मौका मिल रहा है। पढ़ने वालों को अच्छा ज्ञान समाधान मिलता रहे, मंगलकामना।