मर्यादा महोत्सव पर विशेष  कालजयी संविधान

मर्यादा महोत्सव पर विशेष कालजयी संविधान

तेरापंथ धर्मसंघ चार बुनियादी खंभों पर खड़ा एक राजप्रसाद है। आज्ञा अनुशासन मर्यादा और व्यवस्था ये चार ऐसे बुनियादी खंभे हैं, जिन पर किसी तूफान या भूकंप का कोई विशेष प्रभाव नहीं होता। यद्यपि तेरापंथ धर्मसंघ के प्रारंभ से लेकर अब तक इन ढाई सौ वर्षों के इतिहास में कई छोटे-मोटे भूकंप आए जरूर लेकिन आचार्य भिक्षु की आचार साधना एवं तप: साधना का इतना बड़ा प्रभाव कि धर्मसंघ अविचल रूप से आज भी सबको धर्म साधना का प्रसाद रहा है। जिसने भी इससे टकराने का दुस्साहस किया, वह स्वयं अपने अस्तित्व को खोकर काल के गर्त में विलीन हो गया। तेरापंथ का प्रथम सूत्र हैआज्ञा। भगवान महावीर ने भी तो आज्ञा में धर्म कहा है। जिस कार्य में भगवान की आज्ञा है, वहाँ धर्म है। इसी सूत्र को आचार्य भिक्षु ने प्रतिपादित करते हुए कहाआज्ञा धर्म अनाज्ञा अधर्म। गुरु की आज्ञा अविचारणीय होती है उस पर अपना दिमाग लगाने की कोई अपेक्षा नहीं होती, उसे समर्पित भाव से स्वीकार करने में हित होता है। एक घटना प्राप्त होती है एक बार एक शिष्य के शरीर में कोढ का रोग हो जाता है। इसका उपाय गुरु जानते थे। जैसे लोहे को लोहा काट देता है ठीक वैसे ही कोढ के जहर को बाहर निकालने के लिए साँप का जहर भी औषध का काम करता है अत: एक साँप को जाते हुए देखकर गुरु ने कहा शिष्य जाओ और उस साँप को नाप कर आओ। शिष्य समर्पित भाव से गया और अपनी बुद्धिबल से उस साँप को नाप कर आ गया। पर गुरु जैसा चाहते थे वैसा हुआ नहीं तो गुरु ने फिर कहाजाओ शिष्य इस बार साँप के दाँत गिनकर आओ। शिष्य बिना किसी तर्क-वितर्क के समर्पित भाव से गया और साँप को पकड़कर दाँत गिनने की कोशिश की तो साँप ने उसे डस लिया। शिष्य ने आकर सारी स्थिति निवेदित की। गुरु ने कहा शिष्य कोई बात नहीं तुम निश्‍चित होकर सो जाओ। शिष्य बिस्तर पर लेट गया। गुरु ने उसे कंबल ओढा दिया। थोड़ी ही देर में उस जहर की गर्मी और कंबल की गर्मी से शरीर में कोढ़ के किटाणु धीरे-धीरे बाहर निकलकर कंबल पर तैरने लगे। जब सारे किटाणु निकल गए तो शिष्य पूर्ण रूप से स्वस्थ हो गया और शरीर कंचन की भाँति दमकने और चमकने लगा। जहाँ गुरु के प्रति सर्वात्मना समर्पण भाव होता है वहाँ पर निश्‍चित ही शिष्य का हित साधन होता है। तेरापंथ का दूसरा विकास सूत्र हैअनुशासन! गुरु का अनुशासन शिष्य के लिए कल्याणकारी होता है। विनीत शिष्य गुरु के अनुशासन को अहोभाव से स्वीकार करता है। उसकी गहरी सोच में गुरु कृत अनुशासन ताड़ना-तर्जना नहीं अपितु अमृत तुल्य होता है। वह सोचता है, मैं परम सौभाग्यशाली हूँ, मेरे जीवन विकास के लिए गुरुदेव कितना पुरुषार्थ कर रहे हैं। गुरु का अनुशासन मेरे जीवन को परिमार्जित और परिष्कृत करने वाला है। मैं विनय भाव से गुरु की सेवा उपासना करता रहूँ। यह गुरु का अनुशासन ही मुझे साधना से सिद्धत्व की ओर आरोहण कराने वाला है। किंतु जो शिष्य अविनीत होता है उसका चिंतन सर्वथा इसके विपरीत होता है। वह सोचता है गुरु अनुशासन क्या कर रहे हैं बल्कि मुझे ताड़ना तर्जना! दे रहे हैं, मुझे चपेटा मार रहे हैं। गुरु के मन में मेरे प्रति वात्सल्य भाव नहीं हैं, मेरे प्रति गुरु के मन में रोष भरा है, मेरे हित वंच्छक नहीं है। बार-बार मुझ पर अनुशासन कर रहे हैं, इनके मन में कितनी द्वेषभावना है। ये मेरा कल्याण नहीं चाहते। ऐसी नकारात्मक सोच वाला शिष्य कभी गुरु के अनुशासन को स्वीकार नहीं कर सकता। अत: उसका कल्याण भी संभव नहीं है। तेरापंथ का तीसरा स्वर्णिम सूत्र हैमर्यादा॥ वस्तुत: तेरापंथ का प्राण, त्राण हैमर्यादा! मर्यादा से जीवन का कल्याण है। श्रीमद् भिक्षु स्वामी दीर्घ द‍ृष्टा आचार्य थे। वे भावी के ज्ञाता संत थे। उन्होंने धर्मसंघ में साधनारत साधुओं को न्याय, संविभाग मिल सके तथा पारस्परिक प्रेम तथा कलह का वातावरण निर्मित न हो तथा संघ सुव्यवस्थित चल सके इसीलिए इन मर्यादाओं का सूत्रपात किया। यद्यपि इन मर्यादाओं में कुछ शाश्‍वत है तो कुछ सामायिक है। आचार्य भिक्षु ने अपने सुदीर्घ चिंतन के आधार पर उत्तरवर्ती आचार्य को यह अधिकार दिया कि मैंने जो मर्यादाएँ बनाई हैं उत्तरवर्ती आचार्य समय सापेक्ष उसमें परिवर्तन या संशोधन कर सकते हैं अथवा कोई नई मर्यादाएँ बना सकते हैं। उसे पूरा धर्मसंघ श्रद्धा के साथ स्वीकार करें। यह धर्मसंघ एक आचार, एक विचार और एक आचार्य केंद्रित धर्मसंघ है। किसी भी उत्तरवर्ती आचार्यों को इसकी मूल मर्यादा में परिवर्तन की अपेक्षा नहीं हुई किंतु उत्तर मर्यादाओं में समय-समय पर परिवर्तन या संशोधन भी किया तो नई मर्यादाएँ भी बनाई हैं जो संघीय हित में अपेक्षत है। शिष्य प्रथा को खत्म करने के लिए दीक्षित करने का अधिकार आचार्य भिक्षु ने वर्तमान अनुशास्ता को दिया है। यदि आचार्य की आज्ञा से किसी को कोई दीक्षित करता है तो आचार्य के नाम से करता है तथा जब भी गुरु दर्शन करता है तब उसको गुरु चरणों में समर्पित कर देता है। आज के युग में पद लिस्सा का भाव भी बहुत बढ़ा हुआ है, भावी आचार्य के लिए किसी की उम्मीदवारी की अपेक्षा नहीं है। आचार्य अपनी कसौटी पर कसकर जो योग्य लगे उसे युवाचार्य के रूप घोषित कर देते हैं। भावी आचार्य के रूप उसकी आचार-निष्ठा, मर्यादा-निष्ठा, गुरु-निष्ठा सर्वोपरि है। इन सारी कसौटियों पर कसकर ही भावी आचार्य की नियुक्‍ति की जाती है। जिसे पूरा धर्मसंघ अहोभाव के साथ स्वीकार करता है। इन मर्यादाओं के आधार पर ही यह धर्मसंघ निरंतर विकासशील है। विकास का चौथा महनीय सूत्र हैव्यवस्था। जहाँ सामुहिक जीवन है वहाँ व्यवस्था पक्ष की मजबूती अनिवार्य है, जिस संघ, संगठन और संस्थान का व्यवस्था पक्ष जितना मजबूत है वह उतना ही विकास के नए-नए द्वारों को उद्घाटित कर सकता है। जहाँ व्यवस्थाएँ चरमरा जाती है वहाँ संगठन कमजोर हो जाता है और बात-बात में झगड़े-फसाद होते रहते हैं। तेरापंथ का व्यवस्था पक्ष इतना व्यवस्थित है कि किसी को किसी प्रकार की शिकायत का मौका ही नहीं मिलता। यदि कोई सदस्य व्यवस्था को भंग करता है तो उसे उपालंभ के साथ प्रायश्‍चित भी मिलता है। जहाँ केंद्र में अर्थात् गुरु सन्‍निधि में रहने वाले साधु-साध्वियों के लिए व्यवस्थाएँ हैं तो बहिर्विहार में विचरने वाले जो भी साधु-साध्वियाँ हैं। अपनी इच्छा अनुसार नहीं कर सकते, जैसी समय सापेक्ष आचार्यश्री व्यवस्था देते हैं उसी अनुसार करना होता है। एक बार जयाचार्य के समय पानी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हुआ अत: सभी साधुओं को निर्देश दिया कि एक प्याले से अधिक पानी का उपयोग न करें। एक साधु ने इस व्यवस्था का उल्लंघन कर दिया तो उस साधु को उच्छृंखल व्यवहार के कारण उसका संघ से संबंध विच्छेद कर दिया। अत: इस तेरापंथ धर्मसंघ में आचार्यकृत व्यवस्था को स्वीकृत करना सबके लिए अनिवार्य है। पालन नहीं करने पर उसे प्रायश्‍चित भी करना पड़ता है। इस प्रकार इन चार सुद‍ृढ़ खंभों पर खड़ा यह तेरापंथ का महल है। यदि खंभे मजबूत हैं तो इमारत को कोई भी तूफान या भूकंप कम्पायमान नहीं कर सकते। महानगरों में देखने को मिलता है जिन ऊँची अट्टालिकाओं के खंभे सुद‍ृढ़ होते हैं, उन्हें कोई भी भूकंप धराशायी नहीं कर सकते। वे स्वयं सुरक्षित रहकर उसमें निवास करने वालों के लिए जीवनदायिनी बन जाते हैं। अन्यथा वे जीवन को खतरे में भी डाल सकते हैं। आचार्य भिक्षु ने अपनी दूरगामी सोच को साधनों को साथ जोड़ा तो साथ ही शासना के साथ ही उतना ही मूल्यवान रहा है। उनके द्वारा खींची गई लोह लकीरें रूपी मर्यादाएँ धर्मसंघ की धरोहर हैं। एक बार किसी व्यक्‍ति ने आचार्य भिक्षु से पूछाभीखणजी! आपका यह धर्मसंघ कब तक चलेगा?
आचार्य भिक्षु ने सटीक जवाब देते हुए कहाजब तक धर्मसंघ के साधु-साध्वियाँ आज्ञा, अनुशासन, मर्यादा और व्यवस्था का निष्ठापूर्वक पालन करते रहेंगे तब तक यह धर्मसंघ चलता रहेगा। विकास की नई कहानियाँ लिखता रहेगा और नित नए कीर्तिमान गढ़ता रहेगा। आज यह तेरापंथ न केवल भारत में बल्कि विश्‍व में धर्म के पर्याय के रूप में अपनी पहचान बनाए हुए है। धर्मसंघ का यह सौभाग्य रहा है कि जब-जब जैसे आचार्यों की अपेक्षा हुई है वैसे ही आचार्यों का नेतृत्व मिलता रहा है। आचार्यों ने भी समय सापेक्ष नए-नए अवदान देकर धर्मसंघ को प्रगति के पथ पर अग्रसर करते रहे हैं। आज तेरापंथ धर्मसंघ सीमित दायरे में नहीं रहकर संपूर्ण मानव जाति के विकास के लिए कार्यरत हैं। जहाँ आचार्य श्री तुलसी ने अणुव्रत, प्रेक्षाध्यान और जीवन-विज्ञान का अवदान देकर मानवता की सेवा में अपनी कर्मजा शक्‍ति, श्रम और समय का सदुपयोग किया है वहीं आचार्य महाप्रज्ञ और वर्तमान एकादशम अनुशास्ता आचार्यश्री महाश्रमण की अहिंसा यात्रा से सुदूर प्रांतों के साथ भूटान व नेपाल में भी जनता जनार्दन न केवल जैन धर्म से परिचित हुई बल्कि लाभान्वित भी हुई है। आचार्यों की आज्ञा निर्देश से सैकड़ों जीवनदानी साधु व साध्वियाँ अपनी आत्मसाधना करते हुए निरंतर पदयात्रा से जन-जीवन को मानवीय मूल्यों की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। साधु-साध्वियों के अतिरिक्‍त अनेक-अनेक व्यक्‍ति आचार्यप्रवर के आदेशानुसार जनता में कार्यरत हैं। धन्य हैं वे लोग जो इस धर्मसंघ से जुड़कर तथा सेवा का महान व्रत लेकर कार्य कर रहे हैं। शासना और साधना तब चलती है जब व्यक्‍ति अपने स्वार्थ को गौण कर निस्वार्थ भावना से संघीय सेवा में उतरता है तथा अपने जागृत चैतन्य को सम्मुख रखकर आगे बढ़ता रहता है। यह धर्मसंघ कोई बहुत पुराना नहीं है। मात्र ढाई सौ वर्षों का इसका उज्ज्वल इतिहास है किंतु इतने कम समय में जो विकास के द्वार उद्घाटित हुए हैं उसमें सबसे विलक्षण बात है धर्मसंघ का कार्य कौशल, साधु-साध्वियों तथा कार्यकर्तओं का श्रम तथा आज्ञा, मर्यादा, अनुशासन तथा व्यवस्था का सुचारु रूप से पालन ही महत्त्वपूर्ण है।