उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)

आचार्य महाश्रमण

आचार्य सिद्धसेन

गोपालकों की सभा में आचार्य वृद्धवादी विजयी रहे। आचार्य सिद्धसेन अपने संकल्प पर द‍ृढ़ थे। आचार्य वृद्धवादी ने पांडित्य का प्रदर्शन न कर समयज्ञता का कार्य किया, समयज्ञ ही सर्वज्ञ होता है। इस अभिमत पर आचार्य वृद्धवादी को सर्वज्ञ और उनकी सूझ-बूझ के सामने अपने को अल्पज्ञ मानते हुए विद्वान् सिद्धसेन ने अपनी पूर्व प्रतिभा के अनुसार उनका शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। वे मुनि बन गए। उनका दीक्षा नाम कुमुदचंद्र रखा गया। वृद्धिवादी के शिष्य-परिवार में कुमुदचंद्र अत्यंत योग्य एवं प्रतिभावान् शिष्य थे।
स्वकुल को उजागर करने वाले सुयोग्य पुत्र को पाकर जितनी प्रसन्‍नता एक पिता को होती है, आचार्य वृद्धवादी को भी कुमुदचंद्र जैसे कुशाग्र बुद्धि के धनी, काव्यचेता शिष्य को पाकर उतनी ही प्रसन्‍नता थी। जैनशासन की सार्वभौम एवं व्यापक प्रभावना शिष्य कुमुदचंद्र के व्यक्‍तित्व से संभव है, यह सोचकर एक दिन वृद्धवादी ने विद्वान् शिष्य कुमुदचंद्र की नियुक्‍ति आचार्य पद पर की। उनका नाम कुमुदचंद्र से पुन: सिद्धसेन कर दिया गया जो पहले था। आचार्य वृद्धवादी ने सिद्धसेन को स्वतंत्र विहरण का आदेश देकर स्वयं ने अन्यत्र विहार कर दिया। नीति के अनुसार गुरु अपने शिष्यों की योग्यताओं को दूर रहकर भी परखा करते हैं और देखा करते हैं।
प्रखर वैदुष्य के कारण आचार्य सिद्धसेन की प्रसिद्धि सर्वज्ञ-पुत्र के नाम से हुई।
चित्रकूट में सिद्धसेन ने विविध औपधियों के चूर्ण से बना एक स्तंभ देखा। प्रतिपक्षी औषधियों का प्रयोग कर आचार्य सिद्धसेन ने उसमें एक छेद कर डाला। स्तंभ में हजारों पुस्तकें थीं। अत्यधिक प्रयत्न करने पर आचार्य सिद्धसेन को उस छेद में से एक ही पुस्तक के प्रथम पृष्ठ के पठन से उन्हें सर्षप-विद्या (सैन्य सर्जन विद्या) और स्वर्ण सिद्धि-विद्या, ये दो विद्याएँ उपलब्ध हुईं। सर्षप-विद्या के प्रभाव से मांत्रिक द्वारा जलाशय में प्रक्षिप्त सर्षप कणों के अनुपात में चौबीस प्रकार के उपकरण सहित सैनिक निकलते थे और प्रतिद्वंद्वी को पराभूत कर वे पुन: जल में अद‍ृश्य हो जाते थे। स्वर्ण-सिद्धि-विद्या के द्वारा मांत्रिक किसी भी प्रकार की धातु को सहजतया स्वर्ण में परिवर्तित कर सकता था। इन दो विशिष्ट विद्याओं की प्राप्ति से आचार्य सिद्धसेन के मन में उत्सुकता बढ़ी। वे पूरी पुस्तक को पढ़ लेना चाहते थे पर देवी ने आकर उनसे पुस्तक को छीन लिया और उनकी मनोकामना पूर्ण न हो सकी। आचार्य सिद्धसेन खिन्‍नमना वहाँ से प्रस्थित हुए और जन-जन को जैन धर्म का बोध प्रदान करते हुए गाँवों, नगरों, राजधानियों में विहरण करते रहे। आचार्य सिद्धसेन की कुशल वाग्मिता से उनकी यश:ज्योत्सना विश्‍व में प्रसारित हुई। मुख-मुख पर उनका नाम गूँजने लगा। आचार्य सिद्धसेन भ्रमणप्रिय आचार्य थे। वे चित्रकूट से पूर्व दिशा की ओर बढ़े। अनेक ग्राम-देशों में विहरण करते हुए पूर्व में कूर्मारपुर में पहुँचे। कूर्मारदेश का शासक देवपाल था। आचार्य सिद्धसेन से बोध प्राप्त कर वह उनका परम भक्‍त बन गया। देवपाल की राजसभा में नित्य नवीन एवं मधुर गोष्ठियाँ होतीं। आचार्य सिद्धसेन के योग से उन गोष्ठियों की सरसता अधिक बढ़ जाती थी। राज-सम्मान प्राप्त कर सिद्धसेन का मन उस वातावरण से मुग्ध हो गया और वे वहीं रहने लगे। किंवदंती के अनुसार वृद्धवादी ने कूर्मार ग्राम में पहुँचकर आचार्य सिद्धसेन की पालकी के नीचे अनेक शिविकावाही पुरुषों के साथ अपना कंधा लगा दिया। अवस्था वृद्ध होने के कारण वृद्धवादी के पाँव लड़खड़ा रहे थे एवं उनकी ओर से सुखापालकी लचक रही थी। आचार्य सिद्धसेन की द‍ृष्टि कृशकाय-वयोवृद्ध वृद्धवादी पर पहुँची और दर्प के साथ वे बोले
अयमान्दोलिकादण्ड: स्कन्धंतव किन्‍नु बाधति।
रे वृद्ध! इस सुखपालकी का दंड तुम्हारे कंधे में गड़ रहा है? आचार्य सिद्धसेन द्वारा उच्चारित बाधति धातु के प्रयोग पर आचार्य वृद्धवादी चौंके। संस्कृत के ‘बाधृङ्ग’ धातु का परस्मैपद व्यवहार सर्वथा अशुद्ध है। इस अशुद्ध प्रयोग को परिलक्षित कर वे बोले
न बाधते तथा दंड: यथा बाधति बाधते।

(क्रमश:)